पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/१९५

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अभिसार “दूर प्रेमी?" अभी सूर्योदय नहीं हुआ था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे, मार्ग जनशून्य थे। शोभना को परिचित संकेत-ध्वनि सुनाई दी। उसने चुपके से पीछे की खिड़की खोलकर देखा-एक छाया-मूर्ति दीवार से सटी खड़ी थी। वह हलके पैरों सीढ़ी उतरकर नीचे आई और धीरे से द्वार खोल दिया। दोनों प्रेमी गाढ़ालिंगन में बद्ध हुए। शोभना ने प्रेमी के गले में बाँह डालकर कहा, “आज इतने दिन बाद आकर सुध ली।" “यह बात नहीं शोभना, मैं दूर चला गया था।" "अभी मत पूछो, भेद की बात है।" "नहीं, बता दो।" “मैं अमीर के पास गया था।" “क्या अमीर के पास?" शोभना का मुँह भय और आश्चर्य से फैल गया। उसके मुँह पर हाथ रखते हुए फतह मुहम्मद ने कहा, “हाँ शोभना, अमीर ने मुझे भेजा था।" "तुमने अमीर को देखा?" “अमीर ने मुझे प्यार से थपथपाया और कहा, “बरखुरदार, तुम तो जैसे मेरे एक होनहार सिपहसालार हो।" "अमीर ने यह कहा?" शोभना की आँखों में आनन्द नाचने लगा। “यही नहीं, उसने मुझे एक टुकड़ी फौज का सरदार भी बनाया है।" "सच?" "देखना अब मेरी तलवार के जौहर।" “किन्तु, देव, क्या तुम धर्म के विरुद्ध तलवार उठाओगे?" "धर्म, प्यारी शोभना, वह धर्म जिसने तुम जैसे कुसुम-कोमल अमल-धवल रमणी- रत्न को वैधव्य के दुर्भाग्य से बाँध रखा है, और मेरे उछलते हृदय को लातों से दलित किया है? देखा नहीं था जब तुम्हारे पिता मेरे मन्त्रपाठ करने पर तलवार लेकर मारने दौड़े थे, तब किसी ने मुझपर दया की? सभी ने कहा, “मारो साले शूद्र को, वेद पढ़ता है नीच- अधर्मी! और उसी धर्म की तुम अभी तक दुहाई देती हो?" “किन्तु देव, वह हमारे बाप-दादों का धर्म है।" “किन्तु हमारे बेटे-पोतों का धर्म ऐसा होगा, जहाँ सब समान होंगे, कोई छोटा- बड़ा न होगा। जहाँ तुम रानी और मैं राजा होऊँगा, तुम्हें क्या कुछ एतराज़ है?" “नहीं, मैं तुम्हें प्यार करती हूँ, तुम्हारे बिना रह नहीं सकती। मैं कोई दूसरी बात सोच ही नहीं सकती। तुम जैसे ठीक समझो करो, मैं तुम्हारी हूँ।" "तो प्यारी शोभना, तुम निश्चिन्त रहो, हम दोनों ही इस धर्म की गुलामी से मुक्त होकर जीवन का फल लाभ करेंगे। खैर, अब यह कहो, यहाँ का क्या हाल-चाल है, देखता हूँ सारा पट्टन ही खाली हो रहा है। सब सेठिए, व्यापारी पट्टन से बाहर चले गए हैं, चारों ओर