पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२१२

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दोस्ती करना चाहता हूँ।” “तुम कौन हो?" ca " "दुश्मन।" "तब तुम समझते हो कि तुम्हारी दोस्ती में फँसकर मैं तुम्हारी जान बक्श दूंगा?" "अगर तुम अपनी बहादुरी के सिले में सिर्फ मेरी दोस्ती कबूल कर लो, तो मैं तुम्हारे हाथ से मरना हज़ार ज़िन्दगियों से भी बेहतर समझूगा। फिर मरने से पहले मैं तुम्हें कुछ सौगात भी दूंगा।" "क्या?" “यह तलवार, जिसे तुमने फतह कर लिया।" "देखता हूँ, तुम एक बहादुर दुश्मन हो।" "और बहादुरी की कद्र करके मैं तुमसे तुम्हारी दोस्ती माँग रहा हूँ।' "फिर तो मुझे तुम्हारी जान बख्शनी होगी।" “जान दुश्मन की है, दोस्तमन। मगर अपना हाथ दो।" महता ने अपना हाथ आगे बढ़ाया। तुर्क ने अपनी तलवार उसके हाथ में थमा कर कहा, “इसे नाचीज़ न समझना बहादुर।” फिर कुछ ठहर कर उसने धीरे से कहा, “अब तुम अपना काम करो, खुदा हाफिज़।" वह आँख बन्द करके निढाल गिर गया। दामो महता उसकी छाती से उतर गए। उसके कण्ठ से धनुष की डोरी निकाल ली और सहारा देकर उसे उठाते हुए उन्होंने कहा- "तुम आज़ाद हो दोस्त।" “इस आज़ादी की कोई कीमत तुम नहीं लोगे?" "दोस्त को कोई चीज़ कीमत लेकर नहीं दी जाती।" "सच है, सच है।" उसने अपने कपड़ों को ठीक किया। फिर कहा-“तो तुमने मेरी दोस्ती कबूल कर ली?" "तुम अगर इसके लिए पछता रहे हो, तो मैं तुम्हारी दर्खास्त नामंजूर भी कर सकता हूँ।” "नहीं, मगर हमें कसम खानी होगी। मैं खुदा और पैगम्बर की कसम खाता हूँ कि तुम्हारी दोस्ती को दुनिया की सबसे बड़ी नियामत समशृंगा।" “और मैं भी भगवान् सोमनाथ की कसम खाकर कहता हूँ कि जब तक तुम्हारा मित्र-भाव कायम है, मैं सदैव तुम्हारा मित्र रहूँगा।" "तुम कहाँ तक मेरा यकीन कर सकते हो, दोस्त?" “जहाँ तक एक दोस्त का किया जा सकता है।" "तो तुम्हें मेरे साथ चलना होगा।" “कहाँ?" "अमीर गज़नी के लश्कर में।', “किसलिए?" “उनके रूबरू हम अपनी दोस्ती की सनद देंगे। मैं अमीर का एक खास उमरा हूँ, मेरे लिए यह जरूरी है।"