गंदावा दुर्ग महमूद को देवपट्टन की यह विजय बहुत महँगी पड़ी। यद्यपि यहाँ से उसे अथाह सम्पदा मिली, परन्तु उसका सैनिक बल छिन्न-भिन्न हो गया। अब उसे यह भय होने लगा कि वह इस अतोल सम्पदा को लेकर सही-सलामत गज़नी पहुँच सकेगा भी या नहीं। उसकी सेना के प्रायः सारे ही हाथी इस युद्ध में नष्ट हो चुके थे। बहुत से मर चुके थे, जो बचे थे अंग- भंग, कमज़ोर और घायल थे। उनमें से अच्छे ऊँट और हाथी चुनकर उसने उनपर सोना, रत्न और लूटा हुआ धन-माल लादा। पचास हाथी और दो सौ ऊँटों पर यह सब सम्पदा लादी गई। सबके बीच एक गजराज पर सिंह-द्वार के चंदन के फाटक और ज्योतिर्लिंग के तीन टुकड़े थे। चुने हुए दस हज़ार उत्कृष्ट सवार इस खज़ाने की रक्षा के लिए देकर और सेनापति मसऊद को उसका नायक बनाकर अनहिल्ल पट्टन की ओर सीधा रवाना कर दिया। बंदी, घायल, रोगी तथा अनावश्यक सामग्री भी उसने उनके साथ ही भेज दी। महासेनानी महमूद को पता लग चुका था कि उसका शत्रु भीमदेव घायल अवस्था में गंदावा दुर्ग में जा छिपा है तथा उसके साथ बहुत-से राजपूत भी हैं। निश्चय ही वह पीछे से आक्रमण कर सकता है। भला महमूद जैसा अनुभवी योद्धा कैसे शत्रु को बगल में छोड़कर आगे बढ़ सकता था! वह भीमदेव को साँस लेने का अवसर भी नहीं देना चाहता था। उसका दल क्षीण हो गया था और सहायता मिलने की उसे आशा न थी। अतः वह नहीं चाहता था कि शत्रु संगठित हो या उसे शक्ति-संचय का समय मिले। अभी गुजरात में बहुत बल था और लौटना निरापद न था, इसलिए उसने अपने प्रबलतम किन्तु घायल, विपन्न शत्रु भीमदेव की ओर अपनी दृष्टि की और निर्णय किया कि जैसे भी हो, उसे आमूल नष्ट करना ही श्रेयस्कर है। इन सब बातों पर विचार करके उसने चुने हुए तीन सहस्र धनुर्धर देकर फतह मुहम्मद को आगे गंदावा दुर्ग भेज दिया। फतह मुहम्मद यहीं का निवासी तथा सब घर-घाट से परिचित था। उसे जहाँ जितनी नौका मिलीं, उन्हें लेकर तथा बाँसों के बेड़े बनाकर कच्छ की खाड़ी में घुसा और शीघ्र-से-शीघ्र बढ़कर गंदावा दुर्ग के उप धमका। अमीर शेष सत्रह हज़ार सुगठित वीरों को लेकर स्थल-मार्ग से दुर्ग की ओर बढ़ा। यह किला कच्छ के किनारे पर महासागर के खड्ड में था। किला बहुत मज़बूत और सुरक्षित था। एकाएक उसपर किसी शत्रु का आक्रमण सम्भव नहीं था। दुर्ग का तीन भाग सागर-गर्भ में था। बहुत बार गुर्जरपतियों ने विपत्ति-काल में इस दुर्ग का आश्रय लेकर धन, मान और प्राण बचाए थे। फतह मुहम्मद की सेना ने सूर्य छिपते-छिपते दुर्ग के जल मार्ग को घेर लिया। इस समय दुर्ग कमा लाखाणी की कमान में था। दामोदर महता और बालुकाराय महाराज भीमदेव की रोग-शय्या पर बैठे उन्हें होश में लाने की तथा उनके घाव पूरे करने की चेष्टा कर रहे थे। महाराज भीमदेव यद्यपि अब मूर्छित न थे, परन्तु उनकी चेतना शक्ति जाती रही थी। वे बारम्बार उठ-उठ-कर प्रलाप करते हुए भाग रहे थे। और किसी को पहचानते पर जा
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