पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/२७४

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रक्त-गन्ध अमीर ने बहुत खोज की, पर दुर्ग में एक भी जीवित क्षत्रिय न मिला जो वीरवर कमा लाखाणी की ऊर्ध्वदैहिक क्रिया करता। अमीर ने तब अपने उमराव क्षत्रिय सरदारों को आदरपूर्वक वीर की अन्तिम क्रिया धर्मानुसार करने की आज्ञा दी। वह स्वयं नंगे पैर पांव-प्यादा कुछ दूर तक अर्थी के साथ चला तथा इस वृद्ध वीर के सम्मान में अपनी सारी सेना की तलवार नीचे झुकी रखने का आदेश दिया। लूटमार करने योग्य वहाँ कुछ भी शेष न बचा था। दुर्ग सूना था, वहाँ न एक प्राणी था, न एक दाना अन्न, न एक बूंद पानी। दुर्ग के तल भाग में बसी बस्ती प्रथम ही जलाकर छार कर डाली गई थी। सब लोग कट-पिट चुके थे; जो बच सके थे, वे प्राण लेकर भाग गए थे। लाशें सड़ रही थीं, गीध मंडरा रहे थे; वायु का सांय-सांय शब्द और समुद्र की उत्ताल तरंगें भयानक दीख रही थीं। अमीर की सारी सेना त्रस्त, थकित, भूखी-प्यासी और अशान्त थी। वहाँ न उनके घोड़ों को घास और दाना- चारा था, न सिपाहियों के लिए अन्न-जल। वीर का सत्कार कर चुकने पर इस सिंह-व्याघ्र का ध्यान फिर अपने प्रमुख शत्रु भीमदेव की ओर गया। क्या भीमदेव बचकर भाग निकला, या इसी युद्ध में मर-कट गया? परन्तु ऐसा होता तो उसका पता अवश्य लग जाता। बहुत से गोइन्दे इसकी टोह में लगा दिए थे। स्वयं फतह मुहम्मद अपने सवारों सहित खोज में निकला था। तीसरे पहर फतह मुहम्मद समाचार लाया कि भीमदेव बचकर खम्भात को रवाना हो गया है। अमीर के पाषाण-सम कठोर हृदय पर जो मूर्ति अंकित थी, वह भी खम्भात में थी। अब तक अमीर अपने रण-रंग में उसे भूला था, अब एकबारगी ही वह मूर्ति उसकी रक्त-बिन्दुओं में ऊधम मचाने लगी। उसने मन-ही-मन याद करके उसका नाम दुहराया- चौला, चौला। और वह लम्बी-लम्बी सांसें लेने लगा। उसके नथुने जलने लगे। इसी समय उसे ख्याल हुआ कि उसका शत्रु भीमदेव भी खम्भात में है। और वह उसकी माशूका नाज़नीं भी। एक अज्ञात ईर्ष्या से उसका रोम-रोम जल उठा। एक प्रच्छन्न भावना से अभिभूत होकर उसने अपने मन में कहा-नहीं-नहीं, ये दोनों कभी नहीं मिलने पाएँगे। कभी नहीं। उसे स्मरण हुआ, वह प्रथम दर्शन, भीमदेव का अकस्मात् आकर तलवार उठाना और फिर गंग के आने से निरुपाय लौटना। उसने धरती पर पैर पटककर कहा, “हुंह, जब तक यह तलवार है, उसे दूसरा कोई न छू सकेगा। वह महमूद की दौलत है। उसकी संचित सारी दौलत से भी अधिक। उसकी सत्रह बड़ी-बड़ी दिग्विजयों से भी अधिक मूल्यवान्!” परन्तु गर्व और गौरव ने किसी के सामने उसे अपने हृदय की इस भूख को प्रकट नहीं करने दिया। वह मन-ही-मन ताव-पेच खाता रहा। अन्त में उसने फतह मुहम्मद को एकान्त में बुलाकर कहा, “क्या तू खम्भात की राह-बाट जानता है?" “जानता हूँ।" “राह में दाना-घास-पानी है?" “बहुत है।"