पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३४६

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प्यादे पाटन की ओर बढ़ने लगे। ब्राह्मण ने कहा, “पाटन में मेरे एक सम्बन्धी हैं, वे राजवर्गी पुरुष हैं। वे तुझे सहायता देंगे। मैं तुझे वहाँ तक ले चलता हूँ। फिर आगे जैसी वह राय दें, करना। इसी में तेरा भला होगा।" चौला ने स्वीकार किया। वह पाटन की ओर ज्यों-ज्यों बढ़ने लगी, उसे प्रतीत होता था कि वह बाघ के मुँह में जा रही है। परन्तु उसने साहस नहीं छोड़ा। अन्त में वह ठीक उस दिन पाटन में पहुँची, जिस दिन बन्दी मुक्त किए गए थे और पाटन में हर्ष की लहर-लहरा रही थी। इस दिन चौकी-पहरे का भी विशेष प्रबन्ध न था। वृद्ध ब्राह्मण ओर उसके युवा पुत्र की ओर किसी ने लक्ष्य नहीं किया। गोधूलि वेला में वे दोनों लोटा, लकुटिया और सत्तू की पोटली कन्धे पर रख चण्ड शर्मा के द्वार पर जा खड़े हुए। बहुत काल बाद चण्ड शर्मा अपने पुराने सम्बन्धी को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने दोनों का स्वागत सत्कार किया। परन्तु वे छद्मवेशी ब्राह्मण कुमार को बारम्बार ध्यान से देखने लगे। उन्होंने नेत्रों ही में पूछा, “यही क्या आपका पुत्र है?" ब्राह्मण ने आँखों में आँसू भरकर कहा, “मेरा पुत्र तो सोमतीर्थ में म्लेच्छों का भोग हुआ। यह युवक तो अपना परिचय स्वयं देगा। इसी को आपके पास लेकर आया हूँ। अभी इसके आहार-विश्राम की व्यवस्था कर दीजिए।" स्वस्थ होने पर चौला ने अपना इस प्रकार परिचय दिया, कि मैं खम्भात में चौलारानी की परिचारिका थी। चौलारानी से मेरा खम्भात की भगदड़ में साथ छूट गया, अब मुझ विपत की मारी को इन ब्राह्मण देवता ने आश्रय दिया।" यह समाचार सुनकर चण्ड शर्मा को आश्चर्य भी हुआ और प्रसन्नता भी। उन्होंने कहा, “तो क्या तुम्हें मालूम है कि तुम्हारी सखी चौलारानी अपना सब कर्तव्य भूल म्लेच्छ के साथ आई है और राजरानी की भाँति रहती है?" चौला शोभना के जीवित होने का संकेत पाकर बहुत प्रसन्न हुई। उसने कहा, आप मुझे उसके पास किसी तरह पहुँचा सकते हैं।' “यह मुश्किल है। उसकी सेवा में जो दासियाँ नियुक्त हैं, सभी मैंने नियुक्त की हैं। मैं तुम्हें उन दासियों के साथ भेज सकता हूँ।" दूसरे दिन भोर ही में चौला जल की भरी झारी कन्धे पर रख दासी के वेश में शोभना के पास दरबारगढ़ के रंगमहल में जा पहुँची। देवी चौलारानी को अपने सम्मुख पाकर शोभना आनन्द-विह्वल हो गई। उसने सब दासियों को हटा दिया और चौला से लिपट गई। प्रथम दोनों ने अपनी-अपनी व्यथा सुनाई। चौला की सब बात सुनकर शोभना ने कहा, “सखी, अब तुम अविलम्ब यहाँ से आबू चली जाओ। और महाराज को बल दो, जिससे गुर्जर भूमि का उद्धार हो।" "परन्तु तुम?" "मेरा मरना-जीना सब समान है। इससे जब इतना विलम्ब हो गया है, तब थोड़ा और सही। इस दुर्दान्त पशु को मैंने पालतू बना लिया है। यद्यपि मेरी भेंट उससे खम्भात ही में हुई है, और अब वह फिर मेरे सम्मुख नहीं आया है, पर सखी, मैंने अभी उसे न छोड़ने का "क्या "