जाने लगे। ब्राह्मणों ने यज्ञ, अनुष्ठान, व्रत,उपवास किए, पर वर्षा न होनी थी, न हुई। श्रावण की भाँति भाद्रपद भी सूखा गया। जंगल की घास भी सूख गई। अभक्ष्याभक्ष्य खाने से नगर-गाँव में हैज़ा फूट निकला। लोग पटापट मरने लगे। हैजे की छूत महमूद की सेना में भी पहुँची। सैकड़ों सैनिक नित्य मरने लगे। सेना में घबराहट और विद्रोह के चिह्न फैल गए। लोगों में आमतौर पर यह बात फैल गई कि यह सब भगवान् सोमेश्वर का कोप है। लोग जगह-जगह कहने लगे कि भगवती त्रिपुर सुन्दरी ने काली-कपाली आदि भैरवियों को भेजा है। वे नर-रक्त से खप्पर भर-भरकर भगवती त्रिपुर सुन्दरी को तथा नर मुण्डमाल भगवान् सोमेश्वर को अर्पण कर रही हैं। काली-कपाली और जोगिनियों के कोप की शान्ति के भी अनेक उपाय किए जाने लगे। घर-घर खीरवाकड़ा के नैवेद्य होने लगे। चौक बाजार में स्त्रियाँ उतारा उतार कर रखने लगीं। द्वारों पर नीम के पत्तों के तोरण बांधे जाने लगे, देव- मन्दिरों में धूप-दीप, होम-हवन होने लगे। नगर के चारों ओर दूध की धार दी गई – परन्तु महामारी का विकराल रूप तो और भी विकराल होता गया। नगर के भंगियों ने भंगी टोले में महाकाली को प्रसन्न करने के लिए अलग टोटका किया। एक काला कुत्ता मारकर भौंहरा में लटका दिया। फिर सब लोग नंग-धडंग हो शराब पी-कर नाचने-गाने लगे। भूपा लोग सिन्दूर माथे पर लपेट मन्त्र-पाठ करके उड़द बिखेरने लगे। धूम-धड़ाके की भी खूब भरमार हुई। परन्तु महामारी ने सबसे अधिक भंगियों को ही समेटा। उन्होंने उड़द का पुतला मन्त्रपूत कर दुर्लभ सरोवर में डाल दिया था, इससे हज़ारों लोग कुद्ध हो-होकर और लाठियाँ ले-लेकर भंगियों पर कहर बरसाने लगे। इन सब कारणों से तथा फौज की बढ़ती हुई विद्रोह-भावना से भयभीत होकर महमूद ने जल्द-से-जल्द गज़नी लौटने का विचार किया। उसने एक आम दरबार की घोषणा की। दरबार में नगर के सब महाजनों और प्रधान पुरुषों को भी बुलाया गया। सबके सम्मुख सुलतान ने यह प्रश्न रखा कि गुजरात का राज्य किसे सौंपा जाए? महमूद ने स्पष्ट रीति पर यह घोषित कर दिया कि वह चामुण्डराय के किसी भी वंशज को राज्य सौंपने को राज़ी है, बशर्ते कि वह राज्याधिकारी सुलतान को अपना अधिपति स्वीकार करे और नियमित रूप से खिराज़ गज़नी भेजता रहे। दरबार में दुर्लभदेव और वल्लभदेव दोनों ही के प्रतिनिधि उपस्थित थे। महाराज चामुण्डराय तो राजपाट का सब मोह त्याग श्वेत तीर्थ में जा परलोक-चिन्तन में मग्न थे। दुर्लभदेव सिद्धपुरे में भगवा वस्त्र पहन संन्यासी बन बैठे थे। वल्लभदेव और भीमदेव प्रच्छन्न भाव से अब अर्बुद, नान्दौल और आसपास के राजाओं की सैन्य एकत्र कर महमूद की राह रोके अर्बुद की घाटियों में चाक-चौबन्द बैठे थे। दुर्लभदेव के चरों ने सुलतान के मन्त्रियों और सलाहकारों को घूस देकर अपने पक्ष में कर लिया था। उन्होंने कहा- “राज्य के अधिकारी और राज्य करने योग्य केवल दुलर्भदेव हैं, वह सुलतान के मित्र हैं और खुशी से सुलतान नामदार को, जितना सुलतान कहेंगे, खिराज देंगे और अन्त तक आप ही की आज्ञा के अधीन रहेंगे।" उन्होंने उस कौल-करार की भी याददिहानी की, जो सुलतान और दुर्लभदेव के बीच हो चुके थे। परन्तु वल्लभदेव के हिमायतियों ने कहा-
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