“वल्लभदेव पाटवी कुंवर है, गद्दी पर उन्हीं का हक है, प्रजा उनसे सन्तुष्ट है। वह विवेकी, न्यायी और वीर पुरुष हैं। उन्हें ही गुजरात का राजा होना चाहिए।" वज़ीर ने कहा, "लेकिन उसने सोमनाथ की लड़ाई में हमारा सामना किया, अभी तक वह भीम के साथ मिलकर सुलतान के खिलाफ फौजकशी कर रहा है। वह अभी तक माफी माँगने को सुलतान की खिदमत में हाजिर नहीं हुआ। राज्य पर अपना हक भी प्रकट नहीं किया। इसलिए यह गद्दी उसे नहीं सौंपी जा सकती।" सुलतान ने सब तर्क सुनकर हुक्म दिया। दोनों में आज से जो सात दिन के भीतर आकर हमारे हुजूर में सलाम करे, ज्यादा से ज़्यादा खिराज़ दे, और जो शर्ते तय हों उनका पालन करे, उसी को गद्दी सौंप दी जाएगी। नहीं तो सात दिन बाद गुजरात में इस्लामी राज्य की स्थापना हो जाएगी।" इतना कहकर सुलतान ने दरबार खत्म किया। दोनों ही पक्षों के समर्थक अपनी- अपनी खटपट में दौड़ने लगे। दोनों राज्याधिकारियों को शाही खरीते भेज दिए गए। महाराज वल्लभदेव ने उत्तर दिया- “मैं क्षत्रिय हूँ, गुजरात की गद्दी पर मेरा अधिकार है, उसे मैं देश और धर्म के परम शत्रु गज़नी के महमूद से भीख माँगकर नहीं, उसके सिर पर यह तलवार मारकर लूँगा।" दुर्लभदेव ने सुना और झटपट फकीरी बाना उतार कर राजकीय ठाठ से आकर सुलतान की हाज़िरी बजाई। नज़र गुजारी और अपनी कमर से तलवार खोल, घोड़े के मुँह में दे, हाथ बाँधकर खड़ा हो गया। उसके इस आचरण से सुलतान सन्तुष्ट हो गया। अपने हाथ से तलवार उसकी कमर में बाँधी, आदर से बैठाया। सब शर्ते तय हो गईं। सुलतान ने उसे गुजरात का राजाधिराज स्वीकार कर लिया। दूसरे ही दिन अनहिलपट्टन में धूमधाम से दुर्लभदेव का राज्याभिषेक हुआ। गुजरात में उसके नाम की दुहाई फेर दी गई।चण्ड शर्मा महामन्त्री के पद पर अभिषिक्त हुए। परन्तु प्रजा ने कोई उत्सव नहीं मनाया। रूखा-सूखा राज्याभिषेक करा, होम- हवन, पूजा-पाठ की रीति पूरी कर स्वर्ण-दक्षिणा ले ब्राह्मण अपने घर गए। महमूद ने मनचाहा नज़राना ले, लूटा हुआ माल-खज़ाना दो सौ हाथियों पर लाद लाव-लश्कर के साथ पाटन से प्रस्थान किया।
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