का भय था, उसका तो सर्वनाश ही समुपस्थित था। वह पागल की भाँति अपने खेमे में बफरे बाघ की भाँति घूम रहा था। उसके वज़ीर-सेनापति सब निरुपाय थे। अब उसके सामने एक ही राह थी, कि वह कच्छ के अगम महा-रन में घुसने की जोखिम उठाए। परन्तु इस अगम रन को वह पार कैसे करेगा? उसके पास साधन कहाँ हैं? ऊँट कहाँ हैं? पानी कहाँ है? पथ- प्रदर्शक कहाँ हैं? वह किसका विश्वास करे? किसका आसरा तके? कहाँ जाए? आज तो खुदा के बन्दे महमूद को खुदा भी राह नहीं दिखा रहा था। उसके सेनापतियों ने लड़ने से साफ इन्कार कर दिया था। निरुपाय अपने सब धन-रत्न से निराश हो, वह पीछे भम्भर की ओर मुड़ा। कच्छ के महारन में घुसने को छोड़ उसका किसी तरह निस्तार न था। बाग मोड़ने के समय उसने शोभना से कहलाया, “खुदा का बन्दा महमूद दौराने- गर्दिश में है, वह आपको आज़ाद करता है, आप जहाँ जी चाहे, चली जाएँ अब्बास अपने पाँच सौ सवारों के साथ आपकी रकाब के साथ है।" परन्तु शोभना ने जवाब दिया, “यह रिहाई नहीं, बेबसी है। मैं मंजूर नहीं कर सकती। आपकी इस मुसीबत में मेरा भी हिस्सा है। अमीर नामदार जब अपने उरूज और रुतबे पर हों और इस बन्दिनी को रिहाई देना चाहें, तो उस समय देखा जाएगा।" शोभना के इस जवाब से महमूद इस विपत्ति में भी बाग़-बाग़ हो गया।
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