सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

विधि भंग “विधि भंग हो गई, अब क्या होगा ?" “विनाश होगा!" “रोकिए बाबा, प्रसन्न होइए !" “जब देव-परम्परा भंग हुई, तो गुरु-परम्परा भी भंग होगी।" "अनर्थ हो जाएगा।" “प्रलय भी हो सकता है।" प्रभात हो गया था। त्रिपुरसुन्दरी के मन्दिर के पट सर्वज्ञ ने बन्द करा दिए हैं, यह बात आग की भाँति पट्टन में फैल गई थी। रुद्रभद्र ने प्रायश्चित-स्वरूप उपवास करके पंचाग्नि तप प्रारम्भ कर दिया था। मन्दिर के तोरण के बाहर निकट ही एक विशाल वट- वृक्ष था, उसी के नीचे पाँच बड़ी-बड़ी धूनियाँ धधक रही थीं। उनके बीच रुद्रभद्र का भीमकाय शरीर एक कुशासन पर विराजमान था। उसकी बड़ी-बड़ी पलकें झुकी हुई थीं। मोटे-मोटे काले होंठ निरन्तर हिल रहे थे। वह उच्चाटन-मन्त्र का पाठ कर रहा था, उसके संपूर्ण अंग में भस्म लगी हुई थी। अंग पर मात्र कौपीन था। सैकड़ों भक्त दर्शक वहाँ उपस्थित थे। और भी आते-जाते थे। लोग भाँति-भाँति की बातें करते थे। दो-चार हुड़दंग बाबा उसे घेरे बैठे थे। दो-चार धूनी में लक्कड़ डाल रहे थे। सिंदूर का भैरवी चक्र बना था। उस पर लाल सिंदूर से रंगा, रंग-बिरंगे धागों से लपेटा एक मानव-पुतला उड़द के आटे का पड़ा हुआ था। लोग भयभीत और चकित मुद्रा से उसे देख रहे थे। रुद्रभद्र बीच-बीच में कुछ अस्फुट उच्चारण कर पुतले पर उड़द फेंक रहा था। एक हुड़दंग बाबा करबद्ध हो आगे चला। उसने भीति-भरे नयनों से देखकर कहा, "रोकिए प्रभु, रोकिए !” "नहीं,” संक्षेप में कहकर रुद्रभद्र जल्दी-जल्दी कोई मन्त्र पढ़ने और उड़द फेंकने लगा। उपस्थित जनों में घबराहट फैल गई। रुद्रभद्र यद्यपि गंग सर्वज्ञ का अंतेवासी और शिष्य था। पर था वह वाम-मार्गी। वह त्रिपुरसुन्दरी देवी का अनन्य उपासक था। वह तन्त्र-शास्त्र का प्रकाण्ड पंडित और अभिचार-योग का प्रसिद्ध ज्ञाता समझा जाता था। मारण, मोहन, उच्चाटन आदि अभिचार- कार्य वह प्रायः करता रहता था। यह प्रसिद्ध था कि कालभैरव उसका वशवर्ती और दास है, तथा उसकी आज्ञा से यह देवता सब सम्भव-असम्भव कृत्य-कुकृत्य कर सकता है। रुद्रभद्र जिस पर कुपित हुआ, उसके जीवन की खैर न थी और शीघ्र या विलम्ब से कालभैरव उसे खा जाता था। कालभैरव के प्रांगण में उस हतायु के रक्त की कुछ बूंदें टपकी हुई मिलती थीं, या आधी खाई हुई कलेजी या खोपड़ी का कुछ शेषांश पड़ा दीखता था। ऐसी घटना होने पर हतायु के सगे-सम्बन्धी क्रुद्ध होने की अपेक्षा नानाविध भोग देवता को प्रसन्न करने को अर्पण करते थे, जिससे वह अप्रसन्न होकर आगे उस वंश का समूल नाश न कर दे। बहुत-सी सेवा करके तथा सुवर्ण-दान से संतुष्ट करके, रुद्रभद्र को भी देवता को संतुष्ट करने के लिए