जगह पर बना हुआ था। इस मन्दिर के गर्भ में हिन्दू देवी-देवता और शिव की खण्डित मूर्तियाँ हैं। इसके उत्तर-पूर्व के बीच के कोने में वह स्तम्भ, जिसपर कि वह शिलालेख खुदा हुआ है, अपनी पूर्व जगह पर कायम है। आधार को बाद देकर उसकी ऊँचाई 60 इंच है। उसके चार पहलू हैं और शिलालेख चारों में समाप्त होता है, जिसमें कुल 240 पंक्तियाँ हैं। अक्षर बहुत सुन्दर हैं, और लगभग वैसे ही हैं जैसे दक्षिण भारत के 10वीं या 12वीं शताब्दी के शिलालेखों में मिलते हैं। लेख की पहली 194 पंक्तियाँ संस्कृत में हैं और शेष वहाँ की प्राचीन ख्मेर भाषा में। लेख में शिव और ब्रह्मा की स्तुति की गई है। सम्राट् उदयादित्य और उसके गुरुदेव शिवकैवल्य की महानता का बखान है,और किस प्रकार वह शिवलिंग स्थापित हुए और मन्दिर बनाए, इन सबका वर्णन राजपरिवार और गुरुपरिवार-वर्णन के साथ लिखा हुआ है, जो बड़ा ही प्रभावशाली है। ईसा की पहली शताब्दी में कुषाण राजाओं ने एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की थी, जिसका विस्तार काशी तक था। इस वंश का राजा वीमब्रडफाईसीस शैव था और महादेव का पोषक था। उसके सिक्कों पर एक तरफ राजा का चित्र है, दूसरी तरफ महादेव नन्दी को लिए खड़े हैं। एवं शिवजी त्रिशूल और डमरू लिए दिखलाए गए हैं। वीम राजा का एक भी ऐसा सिक्का नहीं है, जिस पर शिव की और नन्दी की मूर्ति न हो। इस राजा के उत्तराधिकारी कनिष्क और उसके वंशजों ने भी ऐसे ही शिव-मूर्ति-अंकित सिक्के चलाए, यद्यपि कनिष्क ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था। कनिष्क के सिक्कों में शिवजी ईशो या ईश के नाम से (Oeshe) अंकित हैं। इस मूर्ति की चार भुजाएँ हैं जिनमें से एक में डमरू साफ दीख पड़ता है।4 कुशाणवंशी राजाओं के सिक्कों पर शिव का दूसरा नाम मयासेनो (Meaceno) आया है। यह शब्द निस्सन्देह महेश शब्द का अपभ्रंश रूप है। कुषाणवंशी वासुदेव के सिक्के पर तो केवल चतुर्भुज शिव की मूर्ति और नन्दी की आकृति दिखाई पड़ती है। ऐसा प्रतीत होता है कि कुषाण राजाओं के राज्यकाल में शिव-पूजा का इतना महत्त्व था कि लगभग 200 वर्ष तक तीसरी और चौथी शताब्दी तक–कुषाणों ने निरन्तर शिव को ही अपने सिक्कों में स्थान दिया। निस्सन्देह इन तीन शताब्दियों में लिंगपूजा का प्राधान्य नहीं रहा। यद्यपि इसके बाद लिंगपूजा का प्राधान्य रहा। कुषाणों के बाद गुप्त राज्य से पहले मध्यभारत में नागवंश का भी राज्य रहा। शिलालेखों से प्रतीत होता है कि इस वंश के आदिपुरुष ने शिवलिंग को कन्धे पर रखकर अपने वंश की स्थापना की थी, इसीलिए इस वंश का नाम 'भारशिव' पड़ा। काशी में एक पुरुष आकृति में बनी मूर्ति मिली है, जिसके मस्तक पर शिवजी की पिण्डी रखी हुई। इस काल के बाद ही उत्तरी भारत में गुप्त साम्राज्य का प्रादुर्भाव हुआ। गुप्तवंशी नरेश वैष्णव थे, और इनकी उपाधि ‘परम भागवत' थी। यद्यपि राज्य-धर्म परिवर्तित हो गया था, फिर भी इस काल में शिव-पूजन भारत भर में प्रचलित था। इसी काल का एक शिवलिंग लखनऊ के म्यूज़ियम में है, जिसको कुमारगुप्त ने तैयार कराया था। यह लिंग ऊपर से गोलाकार है और इसके नीचे का भाग चपटा है। इसपर एक लेख खुदा है, जिसे 'कर्मदण्डा की प्रशस्ति' कहते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इस काल में भी शिवलिंग-पूजन की यह प्रवृत्ति बढ़ती ही चली गई। यहाँ तक कि बाहरी आक्रमणकारी जाति ने भी भारत में
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