पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३८६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

बसकर शैव धर्म अंगीकार कर लिया। स्कन्दगुप्त के काल में हूणों ने भारत पर बारम्बार आक्रमण किया, और स्कन्दगुप्त से इनका बहुत भारी संघर्ष हुआ। अन्त में हूणों ने मध्यभारत में एक सुदृढ़ राज्य की स्थापना कर ही ली। इस वंश के तोरमाण के पुत्र मिहिरकुल ने एक छोटा सिक्का चलाया था, जिस पर एक तरफ वृषभ की मूर्ति अंकित थी, और उसके नीचे 'जयतु वृषः' लिखा हुआ था। मूर्ति पर राजा की आकृति के सामने भी एक वृषांकित ध्वजा का चिह्न था। इससे स्पष्ट है कि शकों की भाँति हूणों ने भी अपना कुलदेव शिव को ही स्वीकार किया था। गुप्तों के पतन के बाद छठी शताब्दी में जब मौखरी राजाओं की राज्य- स्थापना हुई,तो उन्होंने भी अपनी उपाधि ‘परम माहेश्वर' प्रसिद्ध की, जो कि इन राजाओं के शिलालेखों पर अंकित है। मध्यप्रान्त के असीरगढ़ में मिली एक मोहर पर नन्दी का चित्र अंकित है। नन्दी के साथ दो सेवक भी हैं। बाण ने अपने 'हर्षचरित' में संकेत किया है कि बंगाल के राजा शशांक ने मौखरी वंश के अन्तिम राजा को मार डाला। यह राजा बौद्धधर्म का प्रबल विरोधी और शैव धर्म का अनुयायी था। इसी राजा ने बोध-गया से बोधिवृक्ष को उखड़वाकर फिंकवा दिया था। इसके सिक्कों पर भी नन्दी सहित शिव का चित्र अंकित है। इसी शताब्दी के लगभग वल्लभी राजाओं ने भी वृषभ के चित्र को अपने सिक्कों पर स्थान दिया था। निस्सन्देह वल्लभी राजा शैवधर्मी थे। इसमें तनिक भी सन्देह नहीं, कि सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक सारे भारत में शिव-पूजा की प्रधानता रही। ओहिन्द के राजाओं ने भी शिव को अपना उपास्य माना, और अपने सिक्कों पर वृषभ का चित्र रखा। राजपूत नरेशों ने भी ऐसे ही अपने सिक्के चलाए। मेवाड़ के राणाओं ने एकाधिदेव श्री एकलिंग का मन्दिर बनवाया, जो समूचे भारत में एकमात्र ऐसा मन्दिर है, कि जिसकी पूजा अखण्ड रूप से हज़ार वर्ष से होती चली आ रही है। 9वीं शताब्दी में काश्मीर में शिवपूजा का बड़ा भारी जोर था। राजा अवन्तिवर्मन के मन्त्री सूर ने एक मन्दिर में भूतेश्वर महादेव की मूर्ति स्थापित की थी। इसके बाद ही दक्षिण में शंकराचार्य ने शैवतत्त्व का प्रचार किया। 10वीं शताब्दी में चौलवंशी महाराजा राजराजा ने तंजौर में अपने नाम पर राजराजेश्वर का ऐसा विशाल मन्दिर बनवाया कि उसकी जोड़ का कोई मन्दिर हिन्दू काल में देखने को नहीं मिलता। 10वीं शताब्दी के बाद तो शिव-मन्दिरों का भारत-भर में प्राबल्य होता चला गया। भारशिव और वाकाटक राजवंश कुषाणवंशी सम्राट कनिष्क सन् 78 ईस्वी में सिंहासन पर बैठा। इसके राज्य में काश्मीर, बुखारा, खानदेश और फारस का कुछ अंश तथा पाटलिपुत्र पर्यन्त समस्त भारतवर्ष सम्मिलित था। इसकी राजधानी पेशावर थी। पीछे यह बौद्ध हो गया। कनिष्क का उत्तराधिकारी हुविश्क हुआ। और हुविश्क के बाद सन् 138 में वासुदेव गद्दी पर बैठा। वासुदेव की मृत्यु से लेकर साम्राज्य की स्थापना तक 150 वर्ष का अंधकारावृत काल, जिसका इतिहास नहीं है, वह समय है, जब 'भारशिव' और 'वाकाटक' राजाओं ने भारत में शैवधर्म की स्थापना की। शक और कुषाण सम्राट् हिन्दू धर्म के घोर विरोधी थे, उन्होंने ढूंढ़- ढूंढ़कर मन्दिर तुड़वाए, ब्राह्मणों और क्षत्रियों को नीचे दबाया, और नीच जनों को ऊँचा पद दिया। प्रजा पर भी उन्होंने भारी-भारी टैक्स लगाए। ऐसे ही समय में नागवंश का