पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/३८७

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उदय हुआ। नाग राजवंश विदिशानगरी में राज्य करता था। इस वंश में भोगनाग, रामचन्द्र नाग, भूतनन्दी, शिशुनन्दी आदि प्रसिद्ध शासक हुए। ये सन् 80-140 के मध्य लगभग 60 वर्ष तक मध्यभारत के जंगलों में बसे, जहाँ उन्होंने छोटा-सा एक जंगली राज्य स्थापित कर लिया। पीछे रीवां बुन्देलखंड होते हुए गंगा के तट पर शकों को पराजित कर समस्त आर्यावर्त में इन्होंने साम्राज्य स्थापित किया। इन नव नागों का राजवंश 'भारशिव' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इनमें वीरसेन, हयनाग, त्रिनाग, चरजनाग और भवनाग प्रसिद्ध सम्राट हुए। इन्होंने लगभग 150 से 250 ईस्वी तक राज्य किया। इनके वंश का नाम भारशिव पड़ने का कारण निम्नलिखित ताम्रपत्र के लेख से स्पष्ट होता है।- अंशभारसन्निवेशितशिवलिंगोद्वहन शिवपरितुष्टसमुत्पादितराजवंशानां पराक्रमाधिगत-भागीरथ्यमलजलमूर्द्धाभिषिक्तानां दशाश्वमेधावमृथस्नानानां भारशिवानाम्।... इस लेख में यह भी स्पष्ट होता है कि इन्होंने दस अश्वमेध यज्ञ किए। काशी की वही यज्ञस्थली अब दशाश्वमेध घाट कहलाती है, ऐसा संकेत इस ताम्रपत्र लेख में है। ये शिवलिंग को कन्धे पर लिए रहते थे, इसीलिए इनका नाम 'भारशिव' पड़ा। भारशिवों के समान ही दूसरा प्रतापी राजवंश वाकाटक राजवंश इनका पड़ोसी था। यह दोनों राज्य परस्पर सम्बन्धित थे। अन्तिम भारशिव महाराज भवनाग के दौहित्र रुद्रसेन वाकाटक महाराज प्रवरसेन के पौत्र थे, जो दोनों राज्यों के उत्तराधिकारी हुए। और इनके बाद दोनों राज्य मिल गए। वाकाटक साम्राज्य अपनी समृद्धि में बहुत बढ़ गया और प्रवरसेन प्रथम ने चार अश्वमेध यज्ञ करके 'सम्राट' का पद ग्रहण किया। प्रवरसेन के पुत्र प्रसिद्ध गौतमीपुत्र थे, परन्तु वह राजा नहीं हुए। राजा हुए उनके पौत्र रुद्रसेन प्रथम। आगे चलकर इसी वंश की एक शाखा ने पल्लव वंश की स्थापना की जिसके प्रभाव से दक्षिणापथ में शैव धर्म का प्रचार हुआ, जिसे आर्य और द्रविड़ दोनों ने स्वीकार किया। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आर्य और द्रविड़ सभ्यता के भेद को अलग करके, आर्यों और द्रविड़ों को एक बनाकर, दक्षिण और उत्तर को एक शैव धर्म में दीक्षित करने का श्रेय इसी वाकाटक वंश को है। जिस मूर्ति को कन्धे पर लेकर भारशिवों ने यह उपाधि प्राप्त की,वह नागौद राज्यान्तर्गत पारसमनिया पहाड़ी पर, भुमरागाँव के निकट, घोर वन में एक भग्न मदिर में अब भी स्थित है, जिसे वहाँ के जंगली लोग भाकुलबाबा कहकर पूजते हैं। यह भाकुल शब्द निस्सन्देह भारकुल का ही अपभ्रंश है। इस मन्दिर के चारों ओर ऐसी ईंटें मिली हैं, जिन पर कुछ अक्षर खुदे हैं। ऐसी कुछ ईटों की जाँच श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने की थी, और उन्होंने उन ईंटों पर 150-200 ईस्वी तक के अक्षर पाए थे। यही समय भारशिवों की समृद्धि का था। सम्भव है कि अपने वैभव में नागों ने अपने इष्टदेव की इस मूर्ति को इस विकट वन में छिपा दिया हो। शैव सम्प्रदाय शैव सम्प्रदाय के जो ग्रन्थ प्रकाशित हुए, वे 'आगम' नाम से प्रसिद्ध हैं। इस सम्प्रदाय वाले भिन्न-भिन्न नामों से भिन्न-भिन्न प्रकार की शिवमूर्ति बना और पूजने लगे थे।