ये मूर्तियाँ छोटे स्तम्भ की आकृति की गोल लिंग के रूप में, या ऊपर का भाग गोल और चारों तरफ चार मुखों के रूप में बनी थीं। ऊपर का भाग विश्व का सूचक तथा चारों ओर के चार मुखों में पूर्व का मुख सूर्य का प्रतीक, उत्तर वाला ब्रह्मा का, दक्षिण वाला रुद्र का और पश्चिम वाला विष्णु का प्रतीक होता था। कुछ ऐसी भी मूर्तियाँ मिली हैं, जिनमें मुख के स्थान में चारों मूर्तियाँ साकार खड़ी बनी हैं। इस प्रकार मूर्ति बनाने की भावना यही है कि सर्व जगत् का कर्ताधर्ता शिव और ये देवता हैं, जो उसके भिन्न-भिन्न रूप हैं। कहीं-कहीं शिव की विशालकाय जटाधारी त्रिमूर्ति भी पाई गई है, उसके छह हाथ, जटा सहित तीन सिर और तीन मुख हैं। जिनमें एक रोता हुआ है जो रुद्र का प्रतीक है। उसके बीच के दो हाथों में से एक में बिजौरा, दूसरे में भाला, दाहिनी तरफ के दो हाथों में से एक में सूर्य और दूसरे में खप्पर और बाईं ओर के दो हाथों में से एक में पतले दण्ड-सी कोई वस्तु और दूसरे में ढाल की आकृति का कोई छोटा-सा गोल पदार्थ है। ये त्रिमूर्ति वेदी पर दीवार से सटी रहती है, और उसमें छाती से कुछ नीचे तक का ही हिस्सा होता है। इस त्रिमूर्ति के सामने भूमि पर बहुधा शिवलिंग होता है, ऐसी त्रिमूर्तियां केवई से छह मील दूर धारापुर नामक टापू में, चित्तौर के किले में, सिरोही राज्य आदि स्थानों में देखने में आई हैं। पर सबसे प्राचीन मूर्ति धारापुर वाली है। शिव के ताण्डव नृत्य की पाषाण या धातु की मूर्तियाँ भी कई जगह मिली हैं। शैव सम्प्रदाय की शाखाएँ मूल शैव सम्प्रदाय पाशुपत सम्प्रदाय कहलाता था। इसी में से लकुलीश सम्प्रदाय का जन्म हुआ। इस सम्बन्ध में ई. सन् 971 का लिखा एक शिलालेख भी मिला है, उसमें लिखा है कि पहले भृगु को विष्णु ने शाप दिया, तब भृगु ने शिव की आराधना कर उन्हें प्रसन्न किया, इस पर शिव हाथ में लकुट (डंडा) लिए प्रकट हुए,इसी से वे लकुटीश कहलाए। उन्हीं को लकुलीश भी कहते हैं। यह अवतार कारवान्ट (बड़ौदा राज्य) हुआ। वही इस सम्प्रदाय का मुख्य स्थान समझा जाता है। लकुलीश की कई मूर्तियाँ राजपूताना, गुजरात, काठियावाड़, दक्षिण (मैसूर तक), बंगाल-उड़ीसा में पाई जाती हैं। ये मूर्तियाँ द्विभुज होती हैं तथा इनके सिर पर जैन मूर्तियों के समान केश होते हैं। उनके दाहिने हाथ में बिजौरा और बायें हाथ में लकुट होता है, मूर्ति पद्मासन में बैठी होती हैं तथा उर्ध्वरेत्ता होने के चिह्नस्वरूप मूर्ति में ऊर्ध्व लिंग बना रहता है। 7 लकुलीश के चार शिष्यों कुशिना, गर्ग, मित्र और कौरूप्य के नाम लिंगपुराण में हैं। इस चारों के नाम से चार शैव सम्प्रदाय चले हैं। अब इस सम्प्रदाय के मनुष्य नहीं है तथा लकुलीश नाम भी बहुत कम लोगों में परिचित है। पाशुपत सम्प्रदाय ही शैवों का प्रमुख सम्प्रदाय है। वे शिव को ही कर्ता-धर्ता-हर्ता परमेश्वर समझते हैं। योगाभ्यास और भस्म-स्नान को आवश्यक समझते और मोक्ष को मानते हैं। ये छह प्रकार की हास, गान, नर्तन, डुक्कार (बैल की भाँति आवाज़), साष्टांग प्रणिपात और जप-क्रिया करते हैं। और भी कुछ क्रियाएं हैं। शैवों का विश्वास है कि जीवों के कर्मानुसार शिव फल देता है, पशु या क्षेत्रज्ञ जीव नित्य और अणु हैं। जब वह पाशों (माया का एक रूप) से छूट जाता है, तो शिव-रूप हो जाता है। कर्म और पाश माया ही है। जप
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