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पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/५६

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अली बिन उस्मान अलहज़वीसी लाहौर की अनारकली के उस छोर पर जहाँ इस समय नीला गुम्बज है, उस स्थान पर एक खानकाह था। इसमें प्रसिद्ध अरबी विद्वान संत अली बिन उस्मान अलहज़वीसी निवास करते थे। यह तत्त्वदर्शन के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'कशकुल-महजूब' के रचयिता थे। हज़रत अली बिन उस्मान का शरीर काला, ठिगना और वज़नी था। उनकी नाभि तक लटकती सफेद दाढ़ी, उनकी गम्भीरता को बहुत बढ़ाती थी। अपने यौवन काल में वे एक बलिष्ठ पुरुष रहे होंगे। प्रसिद्ध था कि वे एक पहुँचे हुए संत थे और अपने पूर्व जीवन में एक भारी कबीले के सरदार भी थे। परन्तु वे अपने सम्बन्ध में कभी एक शब्द भी नहीं कहते थे। वे शुद्ध अरबी भाषा में भाषण करते थे। परन्तु बहुत आवश्यकता होने पर टूटी-फूटी हिन्दी भी बोल लेते थे। खानकाह कच्ची थी और उसके चारों ओर बहुत-से हरे-भरे पेड़-पौधे लगे थे। रात-दिन इस फ़कीर के पास आने-जाने वालों का मेला लगा रहता था। लाहौर में उनके बहुत शागिर्द थे। उनमें हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। सुबह-शाम यह संत उनसे तत्त्व- दर्शन की बातें करते और दिन-भर मौन पड़े रहते। भक्तगण आते, बैठते, दर्शन करते और चले जाते। हज़रत अली की उम्र सत्तर को पार कर गई थी। यह प्रसिद्ध था कि लाहौर का हाकिम उनका मुरीद है, इस कारण भी उनकी बहुत प्रतिष्ठा बढ़ गई थी। सन्ध्या गहरी होती जा रही थी। दो-चार भक्त अब भी साधु के पास बैठे धर्मचर्चा कर रहे थे। उनमें हिन्दू भी थे और मुसलमान भी। धीरे-धीरे एक-एक करके लोग उठने लगे। अभी रात होने में कुछ देर थी। इसी समय एक परदेशी सवार खानकाह के दरवाजे पर उतरा। उसने आगे बढ़कर इस साधु को छूकर हाथ आँखों से लगाया। आगन्तुक को देखकर वृद्ध फ़कीर अस्थिर हो गए। उनका संकेत पाकर एक शिष्य ने सब मनुष्यों को दूर कर दिया। एकान्त होने पर फ़कीर ने शुद्ध अरबी भाषा में कहा- “आप क्या अकेले ही हैं ?" “नहीं, मेरा घोड़ा और तलवार भी है !” आगन्तुक हँसा। “अलहम्दुलिल्लाह ! सुलतान की यही हिम्मत उसकी फतह की वाइस है।" “और आप जैसे बुजुर्ग का साया भी। मगर इस बार की मुहिम मामूली नहीं है।" “यह तो अमीर गज़नी का कल्मा नहीं।" “यह महमूद के दिल की बात है हज़रत !" “क्या कोई नई बात देखने में आई ?" “एक नहीं, तीन-तीन !" "वल्लाह, तो क्या ये बातें ऐसी हैं जिससे अमीर गज़नी का दिल दहलता है ?" "बेशक हज़रत !" “मसलन ?" “वह जिनों का बादशाह, गैबी ताकतों और करामातों का मालिक !" "आपने देखा?"