पृष्ठ:सोमनाथ.djvu/५७

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"मुझे उसका मेहमान होने का फ़न है।" “मेहमान ?” 'और शायद आदमज़ाद में मुझ फकीर को ही यह फ़न हासिल है।" "क्या यह कुफ्र नहीं।" “मैं नहीं जानता, हजरत अलबरूनी भी यही कहते थे।" “अलबरूनी ?" “वे मेरी रक़ाब के हमराह थे।" "हूँ, जिनों का यह बादशाह क्या अमीर गज़नी का दुश्मन है ?" "नहीं, दोस्त।" “खैर, दूसरी शै ?" “वह गुसाईं।” “गंग?" “जी।" "उसे देखा?" "देखा हज़रत !” “उससे आप डरते हैं ?" “जी नहीं, परस्तिश करता हूँ।" “हुश, वह काफ़िर है।" "हज़रत ! वह औलिया है।" “क्या अमीर गज़नी पर भी कुफ्र गालिब हुआ ?" “वह भी अर्ज करता हूँ।” “और भी कुछ है ?" "तीसरी बात।" “वह क्या है ?" “कुफ्रा" "तौबा ! तौबा !" “हज़रत ! उस कुफ्र ने महमूद के दिल में डेरा डाला है।" “क्या मैं अमीर गज़नी से बात कर रहा हूँ।" “जी नहीं, आपके कदमों में यह नाचीज़ महमूद-बिन-सुबुक्तगीन है, जो बेवकूफी से अपना दिल एक बेखबर काफिर के कदमों में फेंक आया है।" "लेकिन सुलतान महमूद तो ऐसे सौदों का आदी नहीं!" "लेकिन जो होना था, वह हो चुका।" “अब अमीर का क्या खयाल है?" 'बस, इसी पर मेरी यह तलवार है।" "दीनो-ईमान?" “वही मेरा दीनो-ईमान है।" "इस्लाम?" co