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सौ अजान और एक सुजान

पहला प्रस्ताव

खोटे को सँग-साथ, हे मन, तजो अँगार ज्यों;
तातो जारै हाथ, सीतल हू कारो करै।

बरसात का अंत है। दुर्व्यसनी के धन-समान मेघ आकाश मे सिमिट-सिमिट लोप होने लगे है। शरत् का आरंभ हो गया। शीत अपना सामान धीरे-धीरे इकट्ठा करने लगी। कुँआर का महीना है। उजाली रात है। ग्यारह बजे का समयहै। सन्नाटा छाया हुआ है, मानो प्रकृतिदेवी दिन-भर की दौड़-धूप के उपरांत थकी-थकाई विश्राम के लिये छुट्टी लिया चाहती है। चंद्रमा सोलहो कला से पूर्ण होने में कुछ ऐसा ही नाम-मात्र का अंतर रखता हुआ अपनी प्रेयसी निशा की मुखच्छवि पर निहाल हो मानो हँस-सा रहा है, जिसकी सब ओर छिटकी हुई चाँदनी सम-विषम भू-भाग को एक आकार दरसाती हुई चक्रवर्ती राजा की आज्ञा-समान सर्वत्र व्याप रही है। मानो वितान रूप नीले आकाश-शामियाने के नीचे सफेद फर्श बिछा दिया गया हो। मालूम होता है, शरत की सहायता पाय धरती आकाश के साथ होड़ लगाए हुए है। वहाँ निर्मल आकाश में मोती-से चमकते