पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/२४

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चौथा प्रस्ताव


उनके पढ़ाए हुए विद्यार्थियों में सबसे चढा-बढ़ा था;बल्कि शिरोमणि महाराज के सब उत्तम गुण इसमें देखे गए,अंतर केवल इतना ही पाया गया कि स्वभाव का यह अत्यंत तीक्ष्ण और क्रोधी था,लल्लोपत्तो और जाहिरदारी इसे आती ही न थी,बल्कि ऐसे लोगों पर इसे जी से घिन थी।उन ब्राह्मण और पंडितों में न था कि केवल दूसरों ही के उपदेश के लिये बहुत-से ग्रंथों का बोझ लादे हो,पर काम में पतित महामंद शूद्र से भी अधिक गए-बीते हो। लोभ,कपट और अहंभाव का कहीं संपर्क भी इसमें न था। स्वलाभसंतोष,सिधाई और जीव-मात्र की हितेच्छा की यह मूर्ति था।

विप्रान् स्वलामसंतुष्टान् साधून भूतसुहृत्तमान्;
निरहङ्कारिणः शान्तान् नमस्ये शिरसाऽपकृत्।

मानो भगवत् के इस श्रीमुखवाक्य का आधार यह था।इसकी चरितार्थता ऐसे ही ब्राह्मणों के विद्यमान रहने से हो रही है।अफसोस!यदि समस्त ब्रह्ममंडली या उनमें से अधिकांश चंदू के समान उन-उन सुलक्षणों से सुशोभित होते,तो इस नई रोशनी के जमाने में भी इनके विरुद्ध मुंह खोलने को किसी की हिम्मत न पङ सकती और न ये सर्वथा पतित‌


ऐसे ब्राह्मण जो स्वलाभ-संतुष्ट हैं,साधु है,प्राणिमात्र के हित चाहनेवाले हैं,अहंकार-रहित हैं,शात स्वभाव के हैं,भगवान् कहते हैं,मैं उन्हें बार-बार सिर से प्रणाम करता हूँ।