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सौ अजान और एक सुजान


हो ऐसी गिरी दशा में आ जाते।अस्तु,वे सब उत्तम गुण इसके लिये अवगुण हो गए।साथ के पढ़नेवाले ही इसके गुण-गौरव को न सह इसकी खुचुर मे लग गए। यह किसे प्रकट नही है कि आपस'की नाइत्तिफाकी के बीज दूसरे की तरक्की पर जलने ने ही हिंदुस्तान को मुदत से कबाब कर रक्खा है। फिर जिस जाति का चंदू है,उसकी तो यह स्वास खसूसियत-सी हो गई है।कहावत है"नाऊ,बाम्हन,हाऊ;जाति देखि गुर्रऊ" "सिरे की मेड़ कानी'के भाँति प्राह्मण ही,जो हिंदू-जाति का सिरा और हिंदुस्तान के सब कुछ हैं,इस लक्षण के हुए,तो औरों की कौन कहे। चंदू इस बात को जान गया था कि लोग हमसे खार खाते हैं,और हमारी खुचुर में लगे हुए हैं,फिर भी अपना कर्तव्य काम समझ उन दोनों बालकों को सिखाने और उन्हें ढंग पर चढ़ाने से यह विमुख न हुआ।इसने सोचा कि हीरा-चंद-सरीखे सत्पात्र के घराने की प्रतिष्ठा और भलमनसाहत इन्हीं दोनों के सुधरने या कुडंग होने से बनती या बिगड़ती है। दूसरे, सेठजी का एहसान इस पर इतना अधिक था कि उसे याद कर यद्यपि यह स्वभाव का बहुत सज्ञा और खरा था,तो भी इस काम से अलग न हुआ।

अब वर्ष ही दो वर्ष के उपरांत तरुनाई की झलक इन दोनों पर आने लगी। नई-नई तरंगे सूझने लगी;नई उमर का तकाजा शुरू हो गया;अमीरी के अल्हड़पन ने आकर