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पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/५६

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दसवाॅ प्रस्ताव


इसका कोई ठीक पता नहीं मालूम ; पर इतना अलबत्ता पता लगता था कि यह हीराचद की बिरादरी का था, और इन बाबुओं को भैया-भैया कहा करता था । इससे यह भी कुछ टोह लगती थी कि इसका बाबुओं के घराने से कोई दूर का रिश्ता भी रहा हो, तो क्या अचरज ! बाबू के सब नौकर इसे नंदू बाबू कहा करते थे। बाप इसका शुरू में कपड़े तथा दूसरी-दूसरी देशी चीजों की एक साधारण-सी दूकान करता हुश्रा निरा बकाल के सिवा किसी गिनती में , न था। मसल है, 'तीन दिवाले साव" । वह इस हिकमत को अमल में लाकर कई बार दिवाला काढ़ और पीछे आधे- तिहाई पर अपने देनदारो से मामला कर लाख-पचास हजार की पूॅजी भी इसके लिये छोड़ गया था। इसलिये नंदू अपना दिमाग इन बाबुओं से कुछ कम न रखता था। थोड़ी उर्दू जानता था; टूटी-फूटी अँगरेजी भी बोल लेता था। वही के दिहाती मदरसों में पढ़ा था ; दो - एक छोटे-मोटे इम्तिहान भी पास किए था। बस, इतना ही कि मुख्तारी और मुसिफी तक वकालत करने का अख्तियार हासिल था। पर कानूनी लियाकत मे अपने आगे हाईकोर्ट के वकीलो को भी कुछ माल न गिनता था, और साधारण लियाकत मे तो बृहस्पति और शुक्राचार्य को भी अपना चेला समझे बैठा था। तरहदारी और अमीरी में पूरा दम भरता था, पर उस तरह को तरहदारी और अमीरी नहीं कि गॉठ का पैसा