हैं. पर यहाँ स्थान-भ्रष्ट के समान ऐसों का आ टिकना अल-
बत्ता एक अचरज या कौतुक था । जो हो, यहाँ के लोग इसके
निस्बत भॉति-भॉति की कल्पनाएँ कर रहे थे। कोई लखनऊ की
बेगमातों में इसे मानते थे; कोई कहते थे 'नही-नही यह दिल्ली
के शाही घरानों में से हैं"; किसी का ख्याल था यह कश्मीर से
आई है इत्यादि ; और कोई इसे यहूदिन समझता था ।
वयक्रम इसका देखने में बाईस के ऊपर ओर पचीस के भीतर
मालूम होता था। गोरा रंग, हीना से दामिनी-सी दमकती
हुई इसके एक-एक सुडौल साँचे के ढले अगो पर सुंदरापा
बरस रहा था। बातचीत, चाल-ढाल और वजेदारी से यह
किसी अच्छे घराने की मालूम होती थी। इसको परदे में रहते
न देख लोगों के मन में दृढ़ विश्वास जम गया था कि यह बंबई
की कोई पारसिन या यहूदिन है । थोड़ा उर्दू-फारसी भी पढ़ी
थी, इसलिये इसकी जबान साफ और शीन-क़ाफ दुरुस्त था।
एक प्रकार की संजीदगी और शऊर इसके चेहरे की मिठास
और सलोनापन के साथ ऐसी मिल-जुल गई थी कि देखने-
वाले के लोचनों की इसे बार-बार देखने की ग्यास कभी
बुझती ही न थी । यह अपने घने केश-जालो मे अलकावली
की गूथन से तथा विकसित-पुडरीक-नेत्रों से वर्षा और शरत
ऋतुओं का अनुहार कर रही थी । पद्मराग-समान लाल
और पतले होंठ, गोल ठुड्डी, ऊँचा-चौड़ा माथा, कुद की
कली-से दॉत, सीधी और बराबर उतार-चढ़ावदार सुग्गा
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सौ अजान और एक सुजान