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पृष्ठ:सौ अजान और एक सुजान.djvu/८९

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सौ अजान और एक सुजान


बरसात का आरंभ है। रिमझिम-रिमझिम लगातार पानी की छोटी-छोटी फूही ग्रीष्म-संताप-तापित वसुधा को सुधादान के समान होने लगीं। काली-काली घटाएँ सब ओर उमड़- उमड़ बरसने लगीं, मानो नववारिद वन-उपवन, स्थावर-जंगम, जीव-जंतु-मात्र को बरसात का नया पानी दे जीवदान से जितने दानी और वदान्य जगत् में विख्यात हैं, उनमें अपना औवल दरजा कायम करने लगे। या यों कहिए कि ये बादल जालिम कमबख्त जेठ माह के जुल्म से तड़पते. हाँपते, पानी- पानी पुकारते जीवों को देख दया से पिघल खिन्न हो आँसु 'बहाने लगे। नदी-नाले उमड़-उमड़ अपना नियमित मार्ग छोड़ वैसा ही स्वतंत्र बहने लगे, जैसा हमारे इस कथानक के मुख्य नायक दोनो बाबू बेरोक-टोक विवेक के मार्ग को छोड़, शरम ओर हया से मुॅह मोड़, दुस्संग के प्रवाह में बह निकले। विमल जलवाले स्वच्छ सरोवर जिनमे पहले हस, सारस, चक्रवाक कलध्वनि करते हुए विचरते थे, उनके मटीले गॅदले पानी में अब मेंढक वैसे ही टर- टर करने लगे, जैसा इन बाबुओं के दरबार में, जहाँ पहले चंदू-सा मतिमान्, सुजान, महामान्य था, वहाँ नंदू तथा रग्घू-सरीखे कई एक ओछे छिछोरे बाबू को दुर्व्यसन के कीचड़ में फंसाय आप कदर के लायक हुए । सूर्य, चंद्रमा, तारागण सबों का प्रकाश रात-दिन मेघ से उप मंद पड़ जाने से जुगुनू कीडों की क़दर हुई, जैसा दुर्दैव-दलित