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तृतीय अंक
 


देवसेना--चलो, परन्तु मुझे सिद्धी से क्या प्रयोजन? जब मेरी कामनाएँ विस्मृति के नीचे दबा दी गई हैं, तब वह चाहे स्वयं ईश्वर ही हो तो क्या? तब भी एक कुतूहल है; चलो--

( विजया देवसेना को आगे कर प्रपंचबुद्धि के पास ले जाती है, और आप हट जाती है। ध्यान से आँख खोलकर प्रपंच उसे देखता है। )

प्रपंच०--तुम्हारा नाम देवसेना है?

देवसेना--( आश्चर्य से ) हाँ भगवन्!

प्रपंच०--तुमको देवसेवा के लिये शीघ्र प्रस्तुत होना होगा। तुम्हारी ललाट-लिपि कह रही है कि तुम बड़ी भाग्यवती हो!

देवसेना--कौन-सी देवसेवा?

प्रपंच०--यह नश्वर शरीर, जिसका उपभोग तुम्हारा प्रेमी भी न कर सका और न करने की आशा है, देवसेवा में अर्पित करो! उग्रतारा तुम्हारा परम मङ्गल करेगी।

देवसेना--( सिहर उठती है ) क्या मुझे अपनी बलि देनी होगी? (घूमकर देखती है) विजया! विजया!!

प्रपंच०--डरो मत, तुम्हारा सृजन इसीलिये था। नित्य की मोह-ज्वाला में जलने से तो यही अच्छा है कि तुम एक साधक का उपकार करती हुई अपनी ज्वाला शांत कर दो!

देवसेना--परन्तु••••••कापालिक! एक और भी आशा मेरे हृदय में है। वह पूर्ण नहीं हुई है। मैं डरती नहीं हूँ, केवल उसके पूर्ण होने की प्रतीक्षा है। विजया के स्थान को मैं कदापि न ग्रहण करूँगी! उसे भ्रम है, यदि वह छूट जाता••••••

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