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स्कंदगुप्त
 

भी०-- उत्तरापथ के सुशासन की व्यवस्था करके परम भट्टारक शीघ्र आवेंगे। मुझे अभी स्नान करना है, जाता हूँ।

देवसेना-- भाई! तुम अपने शरीर के लिये बड़े ही निश्चिन्त रहते हो। और कार्यों के लिये तो......

(भीम हँसता हुआ जाता है)

(मुद्गल का प्रवेश)

मुद्गल-- जो है सो काणाम करके यह तो अपने से नहीं हो सकता। उहूँ, जब कोई न मिला तो फूटी ढोल की तरह मेरे गले पड़ी!

देवसेना-- क्या है मुद्गल?

मुद्गल-- वही-चही, सीता की सखी, मन्दोदरी की नानी त्रिजटा। कहाँ है मातृगुप्त ज्योतिषी की दुम! अपने को कवि भी लगाता था! मेरी कुंडली मिलाई या कि मुझे मिट्टी में मिलाया। शाप दूंगा। एक शाप! दाँत पीसकर, हाथ उठाकर, शिखा खोलते हुए चाणक्य का लकड़दादा बन जाऊँगा! मुझे इस झंझट में फंसा दिया! उसने क्यों मेरा व्याह कराया......?

देवसेना-- तो क्या बुरा किया?

मुद्गल-- झख मारा, जो है सो काणाम करके।

देवसेना-- अरे व्याह भी तुम्हारा होता?

मुद्गल-- न होता तो क्या इससे भी बुरा रहता? बाबा, अब तो मैं इसपर भी प्रस्तुत हूँ कि कोई इसको फेर ले। परंतु यह हत्या कौन अपने पल्ले बाँधेगा!

(सब हँसती हैं)

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