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स्कंदगुप्त
 


कि लड़कर ले लेना ही एक प्रधान स्वत्व है। संसार में इसीका बोलबाला है।

भटार्क–-नहीं तो क्या रोने से, भीख माँगने से कुछ अधिकार मिलता है? जिसके हाथों में बल नहीं, उसका अधिकार ही कैसा है और यदि माँगकर मिल भी जाय, तो शान्ति की रक्षा कौन करेगा?

मुद्गल--(प्रवेश करके) रक्षा पेट कर लेगा, कोई दे भी तो। अक्षय तूणीर, अक्षय कवच सब लोगों ने सुना होगा; परन्तु इस अक्षय मंजूषा का हाल मेरे सिवा कोई नहीं जानता! इसके भीतर कुछ रखकर देखो, मैं कैसी शान्ति से बैठा रहता हूँ!

(पद्मासन से बैठ जाता है)

पृथ्वीसेन--परम भट्टारक की जय हो! मुझे कुछ निवेदन करना है–यदि आज्ञा हो तो।

कुमार॰--हाँ, हाँ, कहिये।

पृथ्वीसेन--शिप्रा के इस पार साम्राज्य का स्कंधावार स्थापित है। मालवेश का दूत भी आ गया है कि 'हम ससैन्य युवराज के सहायतार्थ प्रस्तुत है।' महानायक पर्णदत्त ने भी अनुकूल समाचार भेजा है।

कुमार॰—-मालव का इस अभियान से कैसा भाव है, कुछ पता चला? क्योंकि यह युद्ध तो जान-बूझकर छेड़ा गया है ।

पृथ्वी॰--अपने मुख से मालवेश ने दूत से यहाँ तक कहा था कि युवराज को कष्ट देने की क्या आवश्यकता थी, आज्ञा पाने ही से मैं स्वयं इसे ठीक कर लेता।

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