पृष्ठ:स्कंदगुप्त.pdf/५१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
स्कंदगुप्त
 

धमनी की तंत्री बजी, तू रहा लगाये कान

बलिहारी मैं, कौन तू है मेरा जीवन - प्रान

खेलता जैसे छाया - धूप।

भर नैनों में मन में रूप॥

( सहसा भीमवर्म्मा का प्रवेश )

भीम--भाभी, दुर्ग का द्वार टूट चुका है। हम अंत:पुर के बाहरी द्वार पर है। अब तुम लोग प्रस्तुत रहना।

जयमाला--उनका क्या समाचार है?

भीम--अभी कुछ नहीं मिला। गिरिसंकट में उन्होंने शत्रुओं के मार्ग को रोका था, परन्तु दूसरी शत्रु-सेना गुप्त मार्ग से आ गई। मैं जाता हूँ, सावधान!

( जाता है )

( नेपथ्य में कोलाहल, भयानक शब्द )

विजया--महारानी! किसी सुरक्षित स्थान में निकल चलिये।

जयमाला--( छुरी निकालकर ) रक्षा करनेवाली तो पास है, डर क्या, क्यो देवसेना?

देवसेना--भाभी! श्रेष्ठि-कन्या के पास नहीं है, उन्हें भी दो।

विजया--न न न, मै लेकर क्या करूँगी, भयानक!

देवसेना--इतनी सुन्दर वस्तु क्या कलेजे में रख लेने के योग्य नहीं है?

विजया---( धड़ाके का शब्द सुनकर ) ओह! तुम लोग बड़ी निर्दय हो!

जयमाला--जाओ, एक ओर छिपकर खड़ी हो जाओ!

४६