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द्वितीय अंक
 


किसीका रक्त नहीं गिराना चाहती। चल रे रक्त के प्यासे कुत्ते! चल, अपना काम कर।

(शर्व आगे बढ़ता है)

अनंतदेवी--क्यों देवकी! राजसिंहासन लेने की स्पर्धा क्या हुई?

देवकी--परमात्मा की कृपा है कि मैं स्वामी के रक्त से कलुषित सिंहासन पर न बैठ सकी।

भटार्क--भगवान का स्मरण कर लो।

देवकी--मेरे अंतर की करुण कामना एक थी कि 'स्कंद' को देख लूँ। परन्तु तुम लोगों से, हत्यारों से, मैं उसके लिये भी प्रार्थना न करूँगी। प्रार्थना उसी विश्वम्भर के श्रीचरणों में हैं; जो अपनी अनंत दया का अभेद्य कवच पहनाकर मेरे स्कन्द को सदैव सुरक्षित रक्खेगा।

शर्व--अच्छा तो ( खड्ग उठाता है, रामा सामने आकर खड़ी हो जाती है ) हट जा अभागिनी!

रामा--मूर्ख! अभागा कौन है? जो संसार के सबसे पवित्र धर्म्म कृतज्ञता को भूल जाता है, और भूल जाता है कि सबके ऊपर एक अटल अदृष्ट का नियामक सर्वशक्तिमान् है; वह या मैं?

शर्व०--कहता हूँ कि अपनी लोथ मुझे पैरों से न ठुकराने दे!

रामा--टुकड़े का लोभी! तू सती का अपमान करे, यह तेरी स्पर्धा? तू कीड़ो से भी तुच्छ है। पहले मैं मरूँगी, तब महादेवी।

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