पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१०

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उस की चाल बेसुरी हो जाती है,-आज हिन्दू-समाज की आवाज़ उस चाबी-बीती हुई घडी से अधिक नहीं है। यह निश्चित है, ध्रुव है, कि हम सर्वाङ्गसुधार के बिना अब जीवित नहीं रह सकते। या तो हमें समय का साथ देना होगा अन्यथा कुचले जाने से हम नहीं बच सकते।

सुधार की आवाज़ हमारे समाज से निकलने लगी है, पर अभी जिस परिमाण से उसमें शीघ्रता आनी चाहिए उसका सौवां हिस्सा भी नहीं है। कुलीनता और वर्ण-भेद की ठसक अभी हम में जमी है, जन्म के कारण अस्पृश्य और नीच अभी हमारे यहाँ माने जाते हैं, गुण-कर्म अभी हमारे यहाँ परमात्मा के ठेकेदारों के ही हाथों में है, धन्धों और व्यवसायी में हमारे यहाँ ऊँच-नीच का डंका बजता है। तत्त्ववेत्ता मिल के शब्दों में ये बातें सुधार के पहले अंग में ही उठ जानी चाहिएँ थीं, क्योंकि इनकी उत्पत्ति 'लाठी उसकी भैंस' वाले जबर्दस्ती के नियम पर हुई है। दूसरे शब्दों में जिसे अन्याय कहते हैं वही इस प्रकार की ऊँच-नीच की उत्पत्ति का स्थान है। निर्बल या अधीनस्थ वर्ग का कोई क़ानून या नियम नहीं हुआ करता, बल्कि सशक्त या विजेता लोगों की इच्छा ही उनके लिए क़ानून होती है। जिस समय राज्य की सत्ता ताक़त पर चलती है, उस समय सत्ताधीशवर्ग की इच्छा ही उनके अधीनों के लिए नियम बनती है, फिर चाहे वे शूद्र हों, अस्पृश्य हों, दास हों, स्त्रियाँ हों या विजित