नहीं तो हम उसे इस बात की आज़ादी क्यों नहीं दे देते कि वह जो कुछ चाहे सो माँगे। मुझे मालूम होता है कि जितने पुरुष औरतों को आज़ादी देने के ख़िलाफ़ है उन सब के हृदयों में भी कुछ ऐसी ही बातें चक्कर मारती रहती हैं। उन आदमियों के बारे में मेरा यह भी ख़़याल होता है कि उन्हें यह डर तो नहीं होगा कि शायद आज़ाद होने पर औरतें विवाह करना पसन्द हीं न करें, बल्कि उनको हृदयों में यह डर जरूर बना रहता होगा कि शायद औरतें यह हठ ठानलें कि विवाह करना हो तो बराबरी के हक़ पर करो; या जिन औरतों में कुछ भी समझ और बुद्धि होगी वे यह मान बैठें कि विवाह करके वेफ़ायदे एक आदमी के ग़ुलाम बनने से क्या लाभ-इसलिए वे और किसी धन्धे या व्यवसाय से अपना जीवन-निर्वाह करना जियादा पसन्द करें। और यदि सचमुच विवाहका अर्थ यही होता हो कि अपनी स्वाधीनता खोकर दूसरों की ग़ुलाम बन जाना, और अपनी तमाम सम्पत्ति पर दूसरे का अधिकार करा देना-तो जिन पुरुषों
के मनों में औरतों की आज़ादी से डर है वह सच्चा है और सकारण है। यदि स्त्रियों को उत्तम से उत्तम प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले कामों के करने की पूरी आज़ादी हो, तो कोई उच्च प्रवृति के गुणों वाली, या दूसरे इज्ज़त के काम करके अपने जीवन-निर्वाह की शक्ति रखने वाली स्त्री विवाहित जीवन को पसन्द नहीं करेगी-इसे मैं भी मानता हूँ,-केवल जो
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