पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/११३

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दूसरा अध्याय।

१-अब तक स्त्रियों की पराधीनता का सामान्य विवेचन किया गया है। प्रारम्भ से इस विषय का विवेचन करते-करते हम जिस विभाग तक आ पहुँचे थे, अब उससे आगे का ही विवेचन करना ठीक है, अर्थात् अब हमें यह खोजना है कि इस देश तथा अन्य देशों के क़ायदों में कौन-कौन से बन्धन विवाह के क़ौल-करारों के आवश्यक परिणाम माने जाते हैं। विवाह करना ही स्त्रियों का परम कर्त्तव्य है, समाज की ऐसी अचूक शिक्षा प्रचलित रहने के कारण, और निरन्तर यह सिखाते रहने के कारण कि विवाह के द्वारा पुरुष के अधीन होने के सिवाय स्त्री की और कोई गति ही नहीं है, तथा विवाह-व्यवस्था पर झकमार कर उन्हें राज़ी होना ही पड़े, इस हेतु को सिद्ध करने के लिए सब सामाजिक और राजनीतिक दरवाजे उनके लिए बन्द कर दिये गये, तथा इस विषय की उनकी दाद-फ़रियाद सुनने के लिए रूढ़ि और नीतिशास्त्र के द्वारा सब के कान भर दिये है-यदि साधारण तौर पर हम विवाह के विषय में यही अनुमान करें तो इसमें कुछ भी बुरा नहीं कहा जा सकता। किन्तु स्थिति इससे निराली है। अपना हेतु सिद्ध करने के लिए समाज ने और बहुत सी बातों के समान इस में भी सीधा रास्ता छोड़