पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/११४

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दिया है और उलटा पकड़ा है। पर उन बहुत सी बातों में पीछे से टेढ़े रास्ते को छोड़ कर सीधा ही रास्ता पकड़ा गया है, किन्तु केवल इस ही विषय में लोग अब तक वही टेढ़ा मार्ग पकड़े हुए हैं। प्राचीन समय में लोग स्त्रियों को ज़ोर-ज़ुल्म से छीन ले जाते थे या उनके मा-बापों को हाट के सौदे की तरह दाम देकर ख़रीद लेते थे। इस ही प्रकार योरुप के इतिहास को देखेंगे तो मालूम होगा कि थोड़े ज़माने पहले ही वहाँ लड़की के सुख का अधिक ख़याल नहीं किया जाता था, उसके बाप को हक़ होता था कि वह जैसे चाहे वैसे अपनी बेटी का विवाह अपनी इच्छा के अनुसार करे*[१] और विवाह में लड़की से तो कुछ पूछने की आवश्यकता ही

नहीं थी। ईसाई धर्म की विधि के अनुसार विवाह में कन्या को "हाँ" करनी पड़ती थी, पर यह हाँ राज़ी ख़ुशी की और सच्चे दिल की हो ही कहाँ से सकती थी अपने बाप के दबाव से कन्या को ज़बर्दस्ती हाँ करनी पड़ती थी; क्योंकि बाप के हठ के सामने कन्या का कोई वश नहीं था कि वह उसकी मन्शा में विघ्न डाले। अधिक से अधिक वह बिचारी यह कर सकती थी कि यदि उसके माता-पिता उसकी इच्छा के


  1. * हमारे देश में तो यह प्रथा अभी तक पूर्ण रूप से प्रचलित है। कहावत है कि 'कन्या और गाय जिसे दी जायँ उसके साथ बिना बोले चली जाती हैं।' लड़का और लड़की अपने विवाह के विषय में कुछ सोच ही नहीं सकते। कन्या-विक्रय भी खूब ही है। प्राचीन काल में शास्त्रोक्त विवाह आन प्रकार के थे, जिन में पैशाच, आसुर और राक्षस तो जंगलीपन के ही नमूने थे।