नहीं कर सकता। अभी थोड़े समय से इस प्रकार का क़ानून बना है जो ऐसे अत्याचार पर कुछ अङ्कुश रखता है, पर उसके विषय में यदि यह कहा जाय कि वह निष्फल ही रहा तो ठीक होगा। क्योंकि यह कैसे हो सकता है कि एक ओर तो बकरे को उसी क़साई के हाथ रखना, और दूसरी ओर यह चाहना कि बकरे को मारने वाली क़साई की मनोवृत्ति अङ्कुश में रहे। हमारी बुद्धि और संसार का अनुभव कहता है कि ये दो बातें एक साथ कभी हो ही नहीं सकतीं। जिस पति पर अपनी स्त्री को शारीरिक दुःख पहुँचाने का अपराध साबित हो, या जो मनुष्य दूसरी बार भी ऐसा ही अपराध करे,-उस स्त्री को विवाह-बन्धन तोड़ने का अधिकार होगा या वह पति से भिन्न रहने की हक़दार होगी—जब तक इस प्रकार का नियम नहीं बनता तब तक केवल पति को थोड़ी सजा दे देने से इस विषय का सुधार हो ही नहीं सकता। क्योंकि या तो स्त्रियाँ पति के विरुद्ध दावा ही न करेंगी, या उन्हें पूरे सुबूत ही न मिल सकेंगे और ऐसी स्थिति में पति अपना अत्याचार करते ही जायँगे।
४-प्रत्येक देश में पशुओं के समान और पशुओं से कुछ अधिक उच्च जङ्गली स्वभाव वाले मनुष्यों की तादाद सब से अधिक होती है। और ऐसे नर-पशु भी विवाह के कायदे के अनुसार एक शिकार तो ले ही मरते है; यदि इस अन्याय का पूरा विचार किया जाय तो मालूम होगा कि विवाह की