पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/१३६

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में देखते हैं; यदि हम किसी मनुष्य से नम्र बन कर चलते हैं तो पीछे इरादे-पूर्वक न हो तब भी उससे नम्र होकर चलने की आदत पड़ जाती है, वह आदत या प्रवृत्ति बढ़ कर हमारी स्वाधीनता पर अधिकार करती है और अन्त में उसके उद्धत व्यवहार के विरुद्ध होना पड़ता है, क्योंकि सहनशीलता की भी हद होती है। मनुष्य-स्वभाव की साधारण प्रवृत्ति ही इस प्रकार की है-और इस पर वर्तमान समय के समाज का संगठन इस प्रकार का है कि प्रत्येक मनुष्य को एक-एक मनुष्य पर अनियन्त्रित अधिकार चलाने का हक़ है-और मनुष्य भी वह जो निरन्तर उसके सहवास में रहे-प्रति समय उसकी नज़र के सामने रहे, इन सब का परिणाम यह होता है कि पुरुष के प्रकृतिरूपी मन्दिर के ओने-कोने में जो स्वार्थ के बीज छिपे छिपाये पड़े रहते हैं वे निकल पड़ते हैं; इस ही बात को यदि आलङ्कारिक भाषा में कहें तो यह कह सकते हैं कि स्वार्थ और दुष्टता की कजलाती हुई आग को यह दुष्ट सत्ता रूपी पवन फिर से प्रज्वलित करती है, शान्त आग को फिर दहका देती है। मनुष्य अपनी स्वाभाविक दुष्ट प्रवृत्तियों को अन्य मनुष्यों के सामने दाब रखता है और सदैव इस ही प्रकार करने से वे निःसत्त्व भी हो सकती हैं, पर उन दुष्ट प्रवृत्तियों को इस सत्ता का सहारा मिलने से उसे अधिकाधिक उत्तेजना मिलती है। इस प्रश्न का उत्तरार्द्ध और है, इसके विषय में भी मैं कहूँगा। मैं

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