का मौक़ा मिलना ही सम्भव नहीं-उन मनुष्यों में यह दोष सब से अधिक देखा जाता है। ऐसे मनुष्य बहुत मिलेंगे जो अन्यान्य दोषों से मुक्त हों; किन्तु ऐसे पुरुष तो कोई कहीं ही होंगे जो इस दोष से मुक्त हों।
धर्म्मभाव और तत्त्वज्ञान भी मनुष्य को इस दोष से नहीं बचा सकते, बल्कि उसकी पद्धति उलटा इस दोष को बचाती है-इसकी रक्षा करती है। धर्म्मशास्त्र का जो इस प्रकार का मुख्य तत्त्व है कि सब मनुष्य-प्राणी
समान है (वसुधैवकुटुम्बकम्), इसके ही कारण इस दुष्प्रवृत्ति पर कुछ अङ्कुश है। किन्तु जब तक एक मनुष्य दूसरे से अधिक समझा जायगा, एक दूसरे पर अधिकार करता जायगा, इस सिद्धान्त पर स्थापित की हुई रूढ़ियाँ प्रचलित रहेंगी, और प्रचलित बातों के विरुद्ध धर्म्माचार्य्य इस तत्त्व का उपदेश न करेंगे, तब तक लोगों का बर्त्ताव समान नहीं होगा।
११-निस्सन्देह ऐसी भी स्त्रियाँ होती हैं कि, यदि उन्हें पुरुषों के समान अधिकार भी दे दिये जायँ और उनसे समानता का व्यवहार भी किया जाय तब भी उन्हें सन्तोष नहीं होता। जैसे सब व्यवहार मेरी ही इच्छा के अनुसार होने चाहिएँ, इस बात के मानने वाले पुरुषों की संख्या सबसे अधिक होती है, वैसे ही ऐसे स्वभाव वाली स्त्रियाँ भी अधिक होती हैं। अपनी बात प्रधान रक्खे बिना उन्हें रोटी नहीं हज़म होती। ऐसे मनुष्यों के लिए ही विवाह-बन्धन तोड़ने