संख्या कम होगी-तब मनुष्य-समाज को वह लाभ नहीं हो सकता।
२-मैं इस विषय के सविस्तर विवेचन में जो दलीलें पेश करूँगा उन में केवल सार्वजनिक या लोकोपयोगी कामों का विवेचन करना ही काफ़ी होगा, क्योंकि यदि मैं ऐसे कामों में स्त्रियों का स्वाधीन होना पाठकों के सामने साबित कर दूँ तो फिर जो थोड़े से उपयोगी कार्य बचेंगे जिन्हें स्त्रियाँ नहीं करने पातीं-उन में साबित करना बहुत ही सरल होगा। इस समय हम केवल एक ही अधिकार से विवेचना शुरू करते हैं और वह अधिकार भी ऐसा कि जिस में स्त्रियों के अधिकार स्वीकार करने का आधार उनके मानसिक शक्तियों के निराकरण पर बिल्कुल अवलम्बित नहीं है अर्थात् जिस अधिकार को प्राप्त करने में अमुक प्रकार की मानसिक शक्ति की आवश्यकता नहीं पड़ती। मुझ से इस अधिकार का नाम पूछा जायगा तो मैं कहूँगा कि म्यूनिसिपेलिटी तथा पार्लिमेण्ट के सभासद चुनने का अधिकार। जो मनुष्य कोई सार्वजनिक हक़ भोगे उसे पसन्द करना-अर्थात् चुनना और उस अधिकार के लिए उम्मीदवारी करना-इन दोनों में विशेष अन्तर है। यह निर्विवाद है कि यदि ऐसा नियम बनाया जाय कि जो व्यक्ति पार्लिमेण्ट के सभासद होने की योग्यता न रखता हो, उसे सभासद चुनने का भी अधिकार नहीं होगा तो राज्य की डोर थोड़े से आदमियों के हाथ