ऊपर लिख चुके हैं। इस दोष का सच्चा रूप तलाश करेंगे तो मालूम होगा कि, बहुत से अंशों में तो स्त्रियों की कार्य्य-शक्ति योग्य क्षेत्र न मिलने के कारण व्यर्थ चली जाती है, इस ही लिए उन में कुछ दोष उत्पन्न हो जाते हैं, और यदि वह कार्य्यशक्ति अपने योग्य कार्य्य में लगाई जाय, तो वे दोष नष्ट हो जायँगे। कुछ दोष तो अनजान-पन से और कुछ इरादतन जान-बूझ कर बढ़ाये जाते हैं। उदाहरण के
तौर पर; वाही-तवाही बकना, भूत-प्रेत का सिर पर चढ़ कर बोलना आदि रोग एक ज़माने में स्त्रियों पर अधिक देखे जाते थे। पर ऐसी हालत में जो इज्ज़त समझी जाती थी वह जब कम होगई तब यह रोग भी नहीं रहा। अब इसका भी विचार करना है कि उच्च वर्ण वाली स्त्रियाँ कैसी स्थिति में बड़ी होती हैं और उन्हें किस प्रकार अपना जीवन बिताना पड़ता है। बाग़ में लगाये हुए नाज़ुक पौधे की तरह उन्हें
शुद्ध और खुली हवा कभी नसीब नहीं होती, इसलिए उनकी शारीरिक प्रकृति सर्व्वथा नीरोग नहीं रहती। उन्हें इस प्रकार के उद्योग-धन्धे या कसरत के खेलों की मनाही होती है जिनसे खून बदन में चक्कर मारे और स्नायु मज़बूत हों तथा उनके मनोविकार अस्वाभाविक गति से जाग्रत रक्खे जाते हैं। इन अनेक कारणों से स्त्रियाँ प्रायः क्षयरोग की शिकार बनकर मौत का निवाला बनती हैं, और जो इससे
बच जाती हैं उनके शरीर और मन इतने कोमल और नाज़ुक
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