के बोझ को वह अर्से तक वहन कर सकता है। जिस दिशा की ओर उसने चलना शुरू कर दिया वह उस ही ओर आग्रह के साथ चला जायगा, काम का एक तरीक़ा बदल कर दूसरा स्वीकार करने में उसे असन्तोष होगा, जिसे उसने करना स्वीकार किया उसे अर्से तक निबाहे जायगा-उसे थकान न दबावेगी-उसकी शक्तियाँ कम न होंगी। और हमारे नित्य के अनुभव में क्या ये बातें नहीं आतीं कि पुरुष जिन बातों के कारण स्त्रियों से उच्च समझे जाते हैं, वे बातें ऐसी होती हैं कि जिन में दीर्घ विचार या लम्बे परिश्रम की आवश्यकता होती है और जिन कामों को झटपट कर डालने की आवश्यकता होती है उन्हें स्त्रियाँ ही करती हैं। स्त्रियों का दिमाग़ बहुत जल्दी थकता है; पर थोड़ी देर के परिश्रम से जैसे जल्दी थक जाता है वैसे ही फिर शीघ्र उसी स्थिति पर आ भी जाता है। पर, फिर मैं यह कहता हूँ कि यह विचारमाला आनुमानिक है; इस विषय की खोज में एक पद्धति विशेष उपयोगी होने का दावा नहीं कर सकती। हम यह पहले ही से कह आये हैं कि स्त्री-पुरुषों की मानसिक सामर्थ्य या उनकी प्रवृत्ति के प्रकृतिसिद्ध भेद वास्तविक रीति से हमें मालूम नहीं हो सकते; फिर ये भेद कौन-कौन से हैं और किस प्रकार के हैं, इसका तो जानना बड़ी दूर की बात है। जब तक प्रस्तुत विषय मानस-शास्त्र से न देखा जाय तब तक मनुष्य के लक्षण कैसे होते हैं और वे कैसे बनते हैं इसका
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