व्यवस्था के सामने पड़ने वाली रुकावटें दाब दी गई हों तो वह इसी देश में हुई है। अँगरेज़ अपना बर्ताव नियम के अनुसार ही नहीं रखते हैं, बल्कि अपने विचार भी नियम के अनुसार ही रखते हैं। दूसरे देशों में समाज के निश्चित किये हुए नियमों के अनुसार चलते अवश्य हैं-अर्थात् उसका चलन व्यक्ति मात्र में होता अवश्य है-किन्तु उसकी सत्ता के नीचे दबा हुआ विशेष स्वभाव निर्जीव नहीं हो जाता, उसकी
सजीवता बहुत बार दिखाई दे जाती है। समाज के नियम प्रकृति के नियमो से विशेष सत्ता वाले होते हैं, किन्तु उनका अस्तित्व तो क़ायम ही होता है। इङ्गलैण्ड देश में तो लोक-रूढ़ि के प्रकृत नियमों को पददलित करके उनके स्थान पर वे ही अधिष्ठित हो गये हैं। वहाँ के लोगों की वृत्ति रूढ़ि या नियम के अङ्कुश में रह कर जीवन-व्यापार में प्रवृत्त नहीं होती, बल्कि रूढ़ि से भिन्न चलने वाली और कोई वृत्ति ही उनकी नहीं होती। एक प्रकार से यह परिणाम प्रशंसनीय है, किन्तु साथ ही हानिकर भी है। और चाहे जो कुछ हो, पर परिणाम तो प्रकट है कि कोई अँगरेज़ अपनी जाति के अनुभव से मनुष्य स्वभाव की मूल प्रवृत्ति का पता नहीं लगा सकता-उससे ग़लतियाँ ही होंगी। मनुष्य-स्वभाव की
प्रवृत्तियों का अनुभव करने वाले अन्य देशीय विद्वानों से जैसी भूलें होती हैं वे और ही प्रकार की हैं। मनुष्य-स्वभाव के विषय में जब अँगरेज़ो को कुछ ज्ञान नहीं होता तब फ्रेञ्च
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