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पृष्ठ:स्त्रियों की पराधीनता.djvu/२३

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यदि पहले चारों न हों तो विधवा को है और वह भी निय- सित । यदि पति का कुल अविभत्त है तो विधवा केवल अन्नवस्त्र की ही हकदार है †। स्मृतिकारों के मतानुसार यह हक भी तभी तक माना जा सकता है जब तक विधवा सदा- क्षारिणे बनी रहे। हिन्दू-धर्म के अनुसार एक पुरुष अनेक विवाह भी कर सकता है, उन सब की विधवा दशा में सम्पत्ति की अधिकारिणी ज्येष्ठा ही होती है और दूसरियों का भरण- पोषण करना उसका कर्तव्य होता है । "प्रथमा धर्मपत्नी च द्वितीया रतिवर्धिनी'। ज्येष्ठा आयु के लिहाज़ से नहीं मानी जाती, किन्तु जिसके साथ वेद-विधि से सब से पहले विवाह हुआ हो वही ज्येष्ठा है।

हिन्दू-धर्मशास्त्रों में सीधा अपने नाम से हिन्दू विधवा का सम्पत्ति पर कोई हक नहीं है, किन्तु सन्तान के पालन के बहाने से है। यदि बाँट करते समय विधवा गर्भवती हो तो उसे हिस्सा दिया जायगा, किन्तु यदि बाद में पुत्र पैदा हो, तो उस दिये हुए हिस्से का फिर से हिस्सा किया जा सकता है।


  • -बहत्पति-साहिता के मतानुसार माता के जीवित रहते पुत्र का हक नही

है। धर्मशास्त्र और वेदान्त के अनुसार स्त्री पति को अर्धाङ्गिनी है- यह एक हिन्दू रुढि मौ होगई है अर्थात् पति के आधे अङ्ग के जीवित रहते उसको सम्पत्ति पर और किसी का अधिकार नहीं हो सकता (को० डा0 भा० ३, पृ० ४५८)

†-इस में बङ्गाल के दायभाग का समाविश नही है।

+-दक्ष-सहिता, अ० ४ श्लोक १५ ।