प्रतिभासम्पन्न व्यक्ति को अपनी उच्च से उच्च दशा पर पहुँचने में जितने वर्ष लगते हैं, समग्र व्यक्ति-समुदाय को उस पंक्ति पर पहुँचने में उतनी ही पीढ़ियाँ लगती हैं। अर्थात् बुद्धिमान से बुद्धिमान् व्यक्ति की बुद्धि का विकाश भी एकदम नहीं होता, बल्कि धीरे-धीरे एक मुद्दत्त के बाद वह अपनी उच्च
दशा पर पहुँचता है-फिर यह तो स्पष्ट है कि समग्र समाज के उस दशा पर पहुँचने के लिए बहुत वर्ष, बल्कि उतनी पीढ़ियाँ लगनी ही चाहिएँ। स्त्री और पुरुष की प्रवृत्ति में जो प्रकृति-सिद्ध भेद हों, और इस कारण पुरुषों की लेखन-पद्धति से स्त्रियों की लेखन-पद्धति भिन्न होनी थोड़ी बहुत भी सम्भव हो-तो इस दशा पर पहुँचने के लिए अब तक जितना समय लगा है इससे कहीं अधिक समय की आवश्यकता है।
जो रूढ़िगत प्रभाव सर्वमान्य हो गया है उससे मुक्त होकर, अपनी सहज प्रवृत्ति की ओर झुकने के लिए बड़े लम्बे समय की आवश्यकता है। किन्तु मेरे निश्चय के अनुसार स्त्री और पुरुष की बुद्धि में कोई प्रकृतिसिद्ध भेद नहीं है, तथा दोनों की मानसिक प्रवृत्तियाँ एक ही प्रकार की हैं। अन्त में यह साबित ही होगा, पर*[१] स्त्री-लेखिकाओं की भी कोई ख़ास प्रवृत्ति तो होनी ही चाहिए। किन्तु वह इस समय प्रचलित रीति-रिवाज और प्रत्यक्ष नमूनों के कारण दबी हुई है। और इस बात पर पहुँचने में अभी अर्सा है कि ऐसी व्यक्तिविशिष्ट
- ↑ * पिण्डे पिण्डे मतिर्भिन्ना।