ग़ुलामी का यदि कोई हिस्सा बाक़ी है तो वह विवाह-सम्बन्ध ही है। आज कानूनन कोई किसी का ग़ुलाम नहीं है; केवल हर एक कुटुम्ब की स्त्री ही इसका अपवाद है।
३-इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि, प्रचलित रीति-रिवाजों का संशोधन करने से क्या लाभ होगा-प्रचलित विवाह-विधि को नये साँचे में ढालने से क्या फ़ायदा होगा। शायद कोई यह कहेगा कि तुम्हारे कहने के मुताबिक़ लौट-फेर करने में फ़ायदे की जगह नुक़सान ज़ियादा होगा, पर यह बात तो माननी ही पड़ेगी कि फिर भी फ़ायदा ही होगा। इससे भी अधिक महत्त्व का यह प्रश्न है कि स्त्रियाँ जो बहुत से कामों के अयोग्य समझी जाती हैं यह अयोग्य समझने की प्रथा बन्द होनी चाहिए। उदाहरण के तौर पर स्वाधीन नागरिक (Citizenship) के सब अधिकार उन्हें एक पुरुष के समान भोगने दो। उन्हें तमाम इज्ज़त-आबरू और प्रतिष्ठा वाले कामों के करने की आज़ादी होनी चाहिए; साथ ही इन सब कामों की शिक्षा उन्हें देनी चाहिए। इस स्थल पर, इस सम्बन्ध में, ऐसे कहने वाले बहुत से पुरुष निकल आते हैं जो कहते हैं कि इतना ही साबित करने से बस न होगा कि, स्त्री-पुरुषों की असमानता का कोई वाजिब और ज़ोरदार कारण नहीं है—इससे कुछ होना जाना नहीं-बल्कि यह साफ़ तौर से बता देना चाहिए कि इस असमानता को दूर कर देने से प्रत्यक्ष रीति से क्या-क्या लाभ होंगे।