के अधिकार में हिस्सा बँटावे। धर्मोपदेशकों के विरुद्ध इसलिए आवाज़ उठाई जाती है कि उनका स्त्रियों के विचारों पर अधिकार रखना हानिकारक समझा जाता है, बल्कि पति के अधिकार में धर्मोपदेशक सहभागी होते हैं और स्त्रियों को अपने अनुकूल बनाकर स्वामियों के अधिकार के विश्व बलवा करवाते हैं––इसलिए धर्मोपदेशकों की सत्ता का विरोध किया जाता है। इङ्गलैण्ड में जब किसी प्रोटेस्टैण्ट स्त्री से अन्य पन्थ वाला विवाह करता है, तब इस प्रकार का मतभेद होना सम्भव अवश्य होता है; किन्तु दोनों में जन्म-भर विवाद रहने की अपेक्षा युक्तियों से काम लिया जाता है। स्त्रियों की बुद्धि ऐसी जड़ और संकुचित बना डाली जाती है कि प्रचलित रूढ़ि से बाहर का कोई विचार स्त्री अपने मन में कर ही नहीं सकती और यदि कर भी सकती है तो इतना ही कि पति के जैसे विचार हो वैसे ही अपने भी होने चाहिएँ। अब मान लो कि, स्त्री पुरुष में किसी महत्त्व के विषय में मतभेद नहीं है, किन्तु उनकी रुचि में ही जरा भेद है, तो इतनी भिन्नता ही उनके दाम्पत्य-सुख में भेद डालने के लिए काफ़ी है। यदि स्त्री-पुरुष में कोई प्रकृतिसिद्ध भेद हो तो उस भेद में शिक्षा के द्वारा विशेष वृद्धि करने से सम्भवतः पुरुष की विषय-वासना विशेष हो सकती होगी, किन्तु उससे वास्तविक दाम्पत्य सुख में तो लेशमात्र भी वृद्धि नहीं होती। विवाहित स्त्री-पुरुष यदि सुशिक्षित, सभ्य और सुशील
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