भला व्यवहार किया जाय, पर इसे कभी सन्तोष होने का नहीं।' किन्तु जब वह अपने विषय में इस ही प्रकार का विचार करता है, तब उस की आँखों पर न्यारे ही रंग का चश्मा चढ़ा होता है, तब उस की विचार-पद्धति न्यारे ही ढँग की होती है। उस समय उस से ऊपर वाला मनुष्य चाहे जितनी शुद्धता और पवित्रता से काम करता हो, उसका काम चाहे जितना प्रामाणिक और हितकारी हो, किन्तु उस के मन का समाधान नहीं होता। उसकी शिकायत का सब से बड़ा सबब यही होता है कि उसे कामों के अधिकार से वञ्चित क्यों रक्खा जाता है; और यहाँ तक कि काम-काज में अव्यवस्था का सवाल उठाना भी उसे व्यर्थं मालूम होता है, और इस विषय की जाँच करने से भी वह इङ्कार करता है। किन्हीं ख़ास-ख़ास व्यक्तियों के विषय में ही यह बात नहीं घटती, बल्कि समस्त राष्ट्र और प्रजा इस ही नियम के अनुसार चलती है। अपने देश की राज्यव्यवस्था दूसरे देश वाले चाहे जितनी प्रामाणिकता, सचाई और निष्पक्षता से चलाना स्वीकार करें, किन्तु स्वाधीनता के बदले में किसी स्वतन्त्र देश का आदमी क्या इसे मानेगा? चाहे निश्चय रूप से उन्हें यह विश्वास हो गया हो कि विदेशियों के हाथ में राज्य की डोर सौंप देने से राज्य बहुत अच्छा हो जायगा, सुधर जायेगा; किन्तु फिर भी यही सोचा जायगा कि अपने हाथ से चलाये हुए राज्य में चाहे जितना खोट हो,––फिर भी अपना उद्धार अपनी ही शक्ति
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