मान समय की समाज-व्यवस्था में स्त्रियों की सामाजिक पराधीनता एक कलङ्क के समान रह गई है। जो नियम समाज में सामान्य और सर्वमान्य है उसके उल्लङ्घन का केवल एक यही उदाहरण है। पुराने आचार-विचार नष्ट होजाने पर भी यह प्रथा अवशिष्ट है; और इस अवशिष्ट अंश में ही संसार का विशेष लाभ छिपा है। हम यह अभिमान करते हैं कि संसार में सुधार का प्रवाह दिन पर दिन आगे की ओर
बढ़ रहा है, पर स्त्रियों की पराधीनता से इसमें बड़ा भेद है। सुधार के तेज़ प्रवाह में पहले की तमाम ख़राब बातें बह गईं और उनके स्थान पर प्रत्येक बात न्याय और हित के मूल पर स्थापित की गई है। इतना सब कुछ होने पर भी स्त्रियों की पराधीनतावाली हानिकारक चाल आज तक जैसी की तैसी अटल है। इन दोनों बातों को ध्यान में रख कर जब हम मनुष्य-स्वभाव की प्रवृत्ति का सूक्ष्म निरीक्षण करते हैं, तब आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। स्त्रियों की पराधीनता वाली रूढ़ि अत्यन्त प्राचीन काल से चली आ रही है, तथा इसका प्रसार मनुष्य मात्र में है, इन दोनों कारणों से हम इस रूढ़ि के विरुद्ध मत देने में हिचक जाते हैं, पर ऊपर बताई हुई विसंगतता को जब हम सोचते हैं, तब इस रूढ़ि के विरुद्ध अनुमान करने के बहुत से कारण मिल जाते हैं, यदि यह भी न सही तो, जब इस प्रकार का प्रश्न उपस्थित होता
है कि राज्यसत्तात्मक राज्यपद्धति और प्रजासत्तात्मक राज्य-
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