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ओढ़कर दर्वाजे के सामने बैठे बैठे कर्म के प्रति आलस्य और अनासक्ति से भरी दृष्टि डालते हुए हवा खाया करते है।

हमको यह स्मरण नहीं है कि जो योगासन परम आदरणीय है वहीं समाज की दृष्टि से जंगलीपन है। प्राण न रहने से जैसे शरीर अपवित्र हो जाता है वैसे ही भाव के बिना बाहरी अनुष्ठान भी निन्द्य हो जाया करते हैं। तात्पर्य यह कि जब हममें योगियों के भाव नहीं है तब केवल दिखावा नहीं सोहता।

जो लोग हमारे तुम्हारे समान हैं; जो तपस्या भी नहीं करते और भविष्य भी नहीं खाते; जूता मोजा पहनकर, ट्रामगाड़ी पर चढ़कर पान चबाते चबाते प्रतिदिन आफिस या स्कूल को जाते हैं; जिनकी आदि से अन्त तक खूब खोज खोजकर देखने से भी किसी प्रकार विश्वास नहीं होता कि ये याज्ञवल्क्य, वसिष्ठ, गौतम, जरत्कारु, वैशम्पायन या भगवान् कृष्ण-द्वैपायन के अवतार हैं; जिन छात्रों को देखकर अबतक कभी किसी को बालखिल्य ऋषियों का भ्रम नहीं हुआ; जो लोग एकदिन भी यदि सबेरे, दोपहर और शामको नहाकर एक हड़ खालें तो उसके बाद उन्हें दो एक दिन आफिस या कालेज में गैरहजिर होना परम आवश्यक हो पड़े, उनके लिए इस प्रकार ब्रह्मचर्य का बाहरी आडम्बर करना और पृथ्वी की अधिकांश उद्योगी माननीय जातियों को देखकर नाक सिकोड़ना केवल अद्भुत, असङ्गत, और हँसी की बात ही नहीं है, किन्तु पूर्ण रूप से हानिकर भी है।

भिन्न भिन्न कामों की अलग अलग व्यवस्थायें हुआ करती हैं। पहलवान लँगोट पहनता है, बदन में मिट्टी लगाता है और छाता उभार कर चलता है। यह देखकर रास्ते के लोग खुश होते हैं और वाहवाह करते हैं। परन्तु उस पहलवान का लड़का बहुत ही काहिल और कमजोर है और