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भारतवर्ष का इतिहास।

विचारपूर्वक ध्यान देने से यह बात अच्छी तरह समझ में आ सकती है। राजनैतिक एकेके भीतर विरोध वर्तमान रहने के कारण राजनीति-शास्त्र के प्रेमी यूरप में व्यक्ति–व्यक्ति में, राजा–प्रजा में, धनी–निर्धन में विच्छेद और विरोध का भाव प्रबल रूप से बना रहता है। यह समझना सरासर भूल है कि उन सबने मिलकर अपने अपने निर्दिष्ट अधिकार के द्वारा सारे समाज को संयत कर रक्खा है। वे सब एक दूसरे के प्रतिकूल आचरण करने में जरा भी सङ्कोच नहीं करते। वहाँ हर एक पक्ष या दल की हर घड़ी यही चेष्टा रहती है कि दूसरे पक्ष या दल का बल किसी तरह बढ़ न जाय।

किन्तु, जहाँ सब मिलकर आपस में धक्कमधक्का करते हैं वहाँ बलका सामञ्जस्य हो ही नहीं सकता। धीरे धीरे योग्यता की अपेक्षा जनसंख्या का महत्व अवश्य बढ़ जाता है। तब गुण की अपेक्षा उद्यम को श्रेष्ठता मिलती है और व्यापारी सौदागरों की सम्पत्ति या रुपया गृहस्थों के धनभाण्डार को अपनी ओर खींचने लगता है। इस प्रकार समाज का सामञ्जस्य नष्ट हो जाता है। तब समाज के उन सब विसदृश विरोधी अङ्गों, पक्षों या दलों को, किसी तरह जोड़तोड़ लगाकर, खड़े रखने के लिए गवर्नमेंट कानून पर कानून बनाती रहती है। यह परिणाम राजनीति प्रेम का अवश्यंभावी फल है। कुछ दिनों से यहाँ भी यूरप की देखा देखी राजनीति प्रेम बढ़ जाने के कारण, हिन्दू-मुसलमानों के लाख मेल चाहने पर भी, उनमें परस्पर विरोध ही बढ़ता जाता है। कारण यही है कि विरोध जिसका बीज है और विरोध ही जिसकी खाद है उसका फल भी, विरोध के सिवा, मेल कभी नहीं हो सकता। इस राजनीति-प्रेम के बीच में जो परिपुष्ट पल्लवित व्यापार देख पड़ता है वह इसी विरोध-फलका बलवान् वृक्ष हैं।