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ब्राह्मण।

बको मालूम है कि अभी हाल में (सन् १९०१ ई॰ में) किसी महाराष्ट्र ब्राह्मण को उस के मालिक ने जूता मारा था। इसका मुकद्दमा हाईकोर्ट तक पहुँचा, और अन्त को जज साहब ने मामले को मामूली बात कहकर मिटा दिया।

बात इतनी लज्जा की है कि मैं इस मासिक पत्र में (बंग-दर्शन में) इसकी चर्चा कभी न करता। मार खाकर मारना उचित है या रोना, अथवा नालिश करना—इन बातों की आलोचना समाचार पत्रों में हो चुकी है। मैं इन बातों की चर्चा करना भी नहीं चाहता। मगर इस घटना को देखकर मेरे मन में जो तरह तरह के विचार उठ रहे हैं, उन्हें प्रकट कर देने का यही ठीक समय है।

विचारक ने इस घटना को एक साधारण घटना बतलाया। मैं देखता हूँ कि इस घटना को समाज ने भी साधारण ही समझ लिया। इसलिए विचारक ने जो कहा सो सच ही कहा। जो कुछ हो; इस घटना के तुच्छ माने-जाने से यह मालूम हो गया कि हमारे समाज का विकार बड़ी तेजी से बढ़ रहा है।

अँगरेज लोग जिसे प्रेस्टिज, अर्थात् अपना राज-सम्मान, कहते हैं उसे वे बहुत कीमती समझते हैं। क्यों कि उनका यह प्रेस्टिज बहुधा एक फौज का काम देता है। उनकी यह नीति है कि जिसको