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स्वाधीनता।


प्रत्येक बात का लिखा जाना, और बिना प्रतिबन्ध के उसका प्रकाशित होना सब के लिए भी जरूरी है।

जो मत रूढ हो रहा है, अर्थात् जो बहुत दिनों से प्रचलित है, वह यदि सही है तो उसकी प्रतिबन्ध-हीन विवेचना न होने देने से सिर्फ इतनी ही हानि होगी कि उसका मतलब, या उसका कारण मासूली आदमियों की समझ में न आवेगा। यदि यह बात सच है तो इससे विशेष हानि नहीं हो सकती; क्योंकि वाद-विवाद न करते रहने के कारण लोगों की बुद्धि में तेजी चाहे न रहे, पर उनका आचरण नहीं बिगड़ सकता। मतलब यह कि सच बात को बिना वाद-विवाद-बिना विवेचन-के मान लेने से आदमी नीति-भ्रष्ट नहीं हो सकते; मन्द बुद्धि चाहे हो जायँ। इस आक्षेप का यह उत्तर है कि किसी बात की विवेचना न होने से यही नहीं कि सिर्फ उसका मूल हेतु या मूल कारण ही भूल जाता हो; उसका ठीक मतलब, उसका यथार्थ अर्थ, भी बहुधा भूल जाता है। उस मतलब को जाहिर करने के लिए जो शब्द कास में लाये जाते हैं उनसे वह मतलब ही नहीं निकलता। लोग उनका कुछ और ही अर्थ करने लगते हैं। अथवा जिस बात को बतलाने के लिए वे शुरू में कहे या लिखे गये थे उसका कुछ ही अंश उन शब्दों से जाहिर होने लगता है, सब नहीं। मन उसको अच्छी तरह से नहीं ग्रहण करता; उस पर से अविचल विश्वास जाता रहता है। उसके कुछ ही वचन याद रहते हैं। उन्हींको लोग बे समझे वृझे रटा करते हैं। यदि उसका कुछ अंश रह भी जाता है तो, जैसे किसी फल का सत्त्व या रस सूख जाय और उसका छिलका भर रह जाय, वही हालत उसकी होती है। मनुष्य जाति के इतिहास का बहुत बड़ा भाग इस बात के उदाहरणों से भरा हुआ है। उसका चाहे जितना सनन किया जाय और चाहे जितना अधिक ज्ञान प्राप्त किया जाय सब थोड़ा है।

जिस स्थिति का वर्णन-जिस हालत का बयान-ऊपर किया गया उसके उदाहरण किस धाम्मिक सम्प्रदाय में नहीं है? उसकी मिसालें नीति से सम्बन्ध रखनेवाली किन शिक्षाओं में नहीं हैं-किन बातों में नहीं हैं? सत्र में हैं। जो लोग जिस मत को चलाते हैं, जो लोग जिस नीति का उपदेश देते हैं, उनको और उनके शिष्यों को उसका मतलब और भी खूब अच्छी तरह समझ पड़ता है और उसकी योग्यता का अन्दाज भी उन्हें खूब रहना