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दूसरा अध्याय।


है। दूसरे मत और दूसरी सम्प्रदायों पर प्रभुत्व जमाने के इरादे से जब तक किसी मत या सम्प्रदाय के अनुयायी वाद-विवाद किया करते हैं तब तक उसका मतलब उसके अभिमानी और अनुयायी आदमियों के ध्यान में खूब रहता है-चरञ्च यह कहना चाहिए कि उनके हृदय में उसका प्रकाश और भी अधिकता से पड़ता है। अन्त में या तो उसीकी जीत होती है, अर्थात् वही प्रचलित हो जाता है, या उसका प्रचार वहीं रुक जाता है; आगे नहीं बड़ने पाता। मतलब यह कि वह जितना था उतना ही रह जाता है। जहां उसे इन दोनों में से कोई भी एक स्थिति मिलती है तहां उसके विषय की विवेचना कम हो जाती है। यहां तक कि धीरे धीरे वह बिलकुल ही बन्द हो जाती है। तब तक वह मत रूढ़ हो जाता है और यदि उसका सर्वव्यापी प्रचार न भी हुआ तो भी उसका एक जुदा पन्थ जरूर बन जाता है। कुछ काल के बाद वह पन्थ बहुत आदमियों का पैत्रिक पन्य हो जाता है और उसे छोड़कर दूसरे में जाना लोग कम पसन्द करते हैं। इससे क्या होता है कि उस पन्थके आचार्य या सुखिया उस विषयका बहुत कम विचार करते हैं। औरों को अपने पन्थ या मत में लाने के लिए अथवा अपने पन्थ या मत को औरों के आक्षेपों से बचाने के लिए जितना वे पहले तैयार रहते थे उतना पीछे नहीं रहते। यदि उनके मत के विरुद्ध कोई कुछ कहता है तो उस तरफ वे बहुत कम ध्यान देते हैं और अनुकूल प्रमाण देकर अपने सिद्धान्तों को पुष्ट करने के झगड़े में वे नहीं पड़ते। तभी से उस मत की कला क्षीण होने लगती है। उसी दिन से उसकी चेतनता का-हास शुरू हो जाता है। जितने पन्य हैं उनके मुखिया अकसर यह शिकायत किया करते हैं कि हमारे पन्धवाले सिर्फ नाम के लिए हमारे मत के अनुयायी हैं। उसके सिद्धान्तों की सच्ची और सजीव कल्पना उनके मन में जागृत नहीं है। इसीसे उनके आचरण और उनकी मनोवृत्ति पर उन सिद्धान्तों का पूरा पूरा असर नहीं पड़ता। परन्तु जब तक वह पन्थ अपनी रक्षा के के लिए लड़ता रहता है, अर्थात वाद-विवाद में खूब उत्साह रखता है, तब तक ऐसी शिकाययतें कभी नहीं सुन पड़ती। अपने पन्थ की रक्षा के लिए लड़नेवालों में कमजोर से भी कमजोर लोगों को यह बात मालूम रहती है कि हम किस लिए लड़ रहे हैं। वे इस बात को भी खूब समझते हैं कि उनके मत में और मतों से कितना अन्तर है। इस अवस्था में इस स्थिति में-हर मत