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स्वाधीनता।


के अनुयायियों में ऐसे अनेक आदमी पाये जाते हैं जिनके मन में अपने मत के मतलब से सम्बन्ध रखनेवाली सब बातें जागृत रहती हैं और जिन्होंने उन सब बातों का खूब अच्छी तरह से विचार किया होता है। उन बातों पर पूरा विश्वास होने से जो नतीजा होना चाहिए वह उनके चालचलन और बर्ताव में बहुत अच्छी तरह से देख भी पड़ता है। अर्थात् जैसा वे कहते हैं वैसा करके भी वे दिखाते हैं। परन्तु जब कोई मत या पन्थ पुराना हो जाता है; जब वह परम्पराले प्राप्त होता है; जब वह जन्म ही से मिलता है; जब वह चुपचाप बिना उसके गुणदोष का विचार किये, स्वीकार कर लिया जाता है; तब उसकी सचेतनता बिलकुल ही जाती रहती है। अर्थात्प हले पहल उसपर विश्वास जमने के समय शंका-समाधान करने के लिए मन को जो शक्ति खर्च करनी पड़ती थी उसका खर्च जब बन्द हो जाता है-अर्थात् जन प्रतिपक्षियों ले वाद-विवाद करने की जरूरत नहीं रहतीतव उस पन्थ या मत के मूलमन्त्रों को छोड़ कर बाकी सब बातें लोग धीरे “धीरे भूलने लगते हैं। उसकी सिर्फ खास खास बातें याद रह जाती हैं; और कुछ नहीं। या यदि उस मत की सजीवता के चिह हृदय पर रहते भी हैं-अर्थात् यदि उसके सम्बन्ध की कुछ बातें याद भी रहती हैं तो भी निज के तजरुवे से उनकी जांच करने, या अंतःकरण पूर्वक उनपर 'विश्वास करने, की कोई जरूरत नहीं समझी जाती। दूसरों को उस मत को ‘स्वीकार करते देख और लोग भी, बिना सोचे समझे, उसे स्वीकार कर लेते हैं। मतलव यह कि उस विषय में लोग बेहद बेपरवाही करते हैं। नतीजा इलका यह होता है कि अन्त में मनुष्य-जाति की आत्मा से-उसके भीतरी मनोदेवता से-उस मत या पन्थ का सारा सम्बन्ध छूट जाता है। जब यहां तक नौबत पहुँचती है तब मनुष्योंकी धार्मिकता को वह अवस्था प्राप्त होती है जिसने आज कल दुनिया में सबसे अधिक जोर पकड़ा है। इस अवस्था को, इस दशाको, पहुंचने पर किसी धर्म या मत-विशेष से सम्बन्ध रखनेवाली बातें गोया मत के बाहर ही रह जाती है; और वे एक तरह का ऐसा मजबूत वेतन बन जाती हैं कि बेठन को तोड़कर अच्छे अच्छे खयालात की पहुंच मन तक हो ही नहीं सकती। मन उस समय मन नहीं रहता। वह पत्थर सा हो जाता है। उस पर उत्तम और उदार विचारों का असर नहीं होता। इस दशामें मनोमहाराज एक भी नये और लाभदायक विश्वास