को अपने पास तक नहीं पहुंचने देते। उनको दूर फेंकने की कोशिश में ही वे अपनी सब शक्ति को खर्च करते हैं। और वह धार्मिक बेटन क्या काम करता है? कुछ नहीं। न वह मन के ही काम आता है, न हृदय के ही। हाँ, एक काम वह जरूर करता है। वह उनका संतरी होकर दरवाजे पर बैठा रहता है और किसी को भीतर नहीं जाने देता।
जो मत या सिद्धान्त मन पर सबसे अधिक असर पैदा करनेवाले हैं वे कहां तक निर्जीव विश्वास हो बैठते हैं, और विचार या बुद्धि से उनका कहां तक सम्बन्ध छूट जाता है इसका उदाहरण क्रिश्चियन धर्म के अनुयायियों में खूब मिलता है। जो लोग इस धर्म के सिद्धान्तों को मानते हैं उनका अधिक हिस्सा ऐसा है जिसमें इस बात के उदाहरण पाये जाते हैं। क्रिश्चियन धर्म से मेरा मतलब उन उपदेशों और उन वाक्यों से है जो ईसाई धर्मशास्त्रकी नई पुस्तक में हैं और जिनको सब सम्प्रदाय और जिनको सब पन्ध के आदमी मानते हैं। इन वाक्यों और उपदेशों को सब लोग धर्मानुकूल समझते हैं। अतएव उनको वे पवित्र और मान्य जानते हैं। परन्तु हजार में एक भी ईसाई ऐसा नहीं देख पड़ता-एक भी क्रिश्चियन ऐसा नहीं नजर आता-जो उन नियमों या उपदेशों के अनुसार आचरण करता हो; अथवा इस बात को जांच लेता हो कि उसका बर्ताव उनके अनुकूल होता है या नहीं। यह न समझिए कि मैं इस बात को बढ़ाकर कह रहा हूं। नहीं, इसमें जरा भी अतिशयोक्ति नहीं है। लोग करते क्या हैं कि वे अपने देश, अपनी जाति, या अपने पन्थ के रीति-रवाज की तरफ देखते हैं। रूढ़ि को ही वे धर्मशास्त्र समझते हैं। बात बड़ी ही विलक्षण है। एक तरफ तो लोग यह कबूल करते हैं कि उनके धर्मशास्त्र, अर्थात् वाइवल की नई पुस्तक में जो नियम और जो आदेश हैं वे ईश्वरप्रणीत हैं-वे ऐसे पुरुष के बनाये हुए हैं जो सर्वन है; जो कभी भूल नहीं करता-अतएव उनको मानना और उनके अनुसार आचरण करना हमारा कर्तव्य है। दूसरी तरफ हर रोज काम में लाने के लिए उन्होंने और ही नियम बना रक्खे हैं। अर्थात् शास्त्र के नियमों से व्यवहार के नियम जुदा हैं। इसे मैं मानता हूं कि शास्त्रोक्त नियम व्यावहारिक नियमों से सब कहीं भिन्न नहीं हैं। कहीं पर तो इन दोनों तरह के नियमों में बहुत मेल है, कहीं पर कम है और कहीं पर बिलकुल ही नहीं हैं-भात दोनों में परस्पर विरोध है। मतलब यह कि व्यवहार सम्बन्धी